‘ईद-उल-अजहा’ मुस्लिमों का बड़ा त्योहार माना जाता है। ‘ईद-उल-अजहा’ का त्यौहार हिजरी के आखिरी महीने जुल हिज्ज में मनाया जाता है। ‘ईद-उल-अजहा’ एक अरबी शब्द है इसका मतलब है ‘ईद-ए-कुर्बानी’ यानी बलिदान की भावना। इसे कुर्बानी की ईद , सुन्नत-ए-इब्राहीम और बकरीद भी कहते हैं।
पर इस शब्द का बकरों से कोई संबंध नहीं है। असल में अरबी में 'बक़र' का अर्थ है बड़ा जानवर जो काटा जाता है। उसी से बिगड़कर यह शब्द बना है। आज भारत, पाकिस्तान व बांग्ला देश में इसे 'बकरा ईद' कहा जाता है।
कब मनाया जाता है- ‘ईद-उल-अजहा’ का यह त्योहार रमजान के पवित्र महीने की समाप्ति के लगभग ७० दिनों बाद हिजरी के आखिरी महीने जुल हिज्ज में मनाया जाता है। जहाँ ईद-उल-फितर प्रेम और मिठास जीवन में घोलने का संदेश देता है, वहीं ईद-उल-अज़हा अपने फर्ज के लिए कुर्बानी की भावना सिखाता है। इस दिन अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दी जाती है. कुर्बानी उस पशु के जि़बह( काटना) करने को कहते हैं जिसे 10, 11, 12 या 13 जि़लहिज्ज (हज का महीना) को खुदा को खुश करने के लिए ज़िबिह किया जाता है। कुरान में लिखा है : ‘हमने तुम्हें हौज़-ए-क़ौसा दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज़ पढ़ो और कुर्बानी करो।‘ इस दिन आमतौर पर बकरों की कुर्बानी दी जाती है। 22 अगस्त को ईद-उल- अजहा यानि बकरीद धूमधाम से मनाई गयी।
ईद-उल-अजहा की कहानी- कुरआन के अनुसार एक दिन अल्लाह त’आला ने हज़रत इब्राहिम से सपने में उनकी सबसे अजीज चीज की कुर्बानी माँगी। हज़रत इब्राहिम साहेब को अपना बेटा सबसे अजीज था इसलिए उन्होंने अपने बेटे की ही कुर्बानी देने की ठान ली। लेकिन कुर्बानी देने के समय हज़रत इब्राहिम ने जैसे ही अपने बेटे की गर्दन पर वार किया, सबको मुहाफिज रखने वाले अल्लाह ने चाकू की तेज धार से हज़रत इब्राहिम के बेटे को बचाकर एक भेड़ की कुर्बानी दिलवा दी बस तभी से ईद-उल-अज़हा मनाया जाने लगा।
ईद-उल-अजहा की मान्यता- माना जाता है कि इस दिन हजरत इब्राहिम अल्लाह के हुक्म पर अल्लाह के प्रति अपनी वफादारी दिखाने के लिए अपने बेटे हजरत इस्माइल को कुर्बान करने पर राजी हुए थे इसलिए ईद-उल-अजहा हजरत इब्राहिम की कुर्बानी की याद के तौर पर मनाया जाता है। इस पर्व का मुख्य लक्ष्य लोगों में जनसेवा और अल्लाह की सेवा के भाव को जगाना है।
ईद-उल-अज़हा का यह पर्व इस्लाम के पांचवें सिद्धान्त हज की भी पूर्ति करता है। हिजरी के आखिरी महीने जुल हिज्ज में दुनिया भर के मुसलमान मक्का सऊदी अरब में हज मनाते हैं। ईद-उल-अज़हा हज की एक अंशीय अदायगी और मुसलमानों के भाव का दिन है। दुनिया भर के मुसलमानों का एक समूह मक्का में हज करता है बाकी मुसलमानों के अंतरराष्ट्रीय भाव का दिन बन जाता है।
ईद-उल-अज़हा को कैसे मनाया जाता है- - इस दिन सभी लोग सुबह नहा धोकर नए कपड़े पहनकर नमाज पढ़ते के लिए मस्जिद व ईदगाह जाते हैं और औरतों घरों में ही नमाज पढती हैं। नमाज पढ़कर आने के बाद ही कुर्बानी की प्रक्रिया शुरू की जाती है।
- ईद-उल-अज़हा के दिन मुसलमान किसी जानवर जैसे बकरा, भेड़, ऊंट आदि की कुर्बानी देते हैं। इस कुर्बानी के गोश्त को तीन हिस्सों में बांटा जाता है: एक खुद के लिए, एक सगे-संबंधियों के लिए और एक गरीबों के लिए।
- ईद उल फितर की तरह ईद उल अजहा में भी जकात देना अनिवार्य होता है ताकि खुशी के इस मौके पर कोई गरीब खुशी से महरूम ना रह जाए।
इन जानवरों को पालने के बाद देते हैं कुर्बानी -
कहते हैं कि अल्लाह ने हजरत इब्राहिम से अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देने को कहा था,पर अल्लाह ने हजरत इब्राहिम के बेटे को बचाकर दुम्बा कुर्बान करा दिया इसलिए अरब में दुम्बा की कुर्बानी का चलन शुरू हुआ। बकरे या अन्य जानवरों की भी कुर्बानी दी जाने लगी। इस दिन जिन जानवरों की कुर्बानी देते हैं उसे कई दिन पहले से अच्छे से खिलाया-पिलाया जाता है, उससे लगाव किया जाता है, फिर उसी की कुर्बानी दी जाती है।
अतः कह सकते हैं कि ईद- उल- अजहा का अक्षरश: अर्थ त्याग वाली ईद है इस दिन जानवर की कुर्बानी देना एक प्रकार की प्रतीकात्मक कुर्बानी है। हज और उसके साथ जुड़ी हुई पद्धति हजरत इब्राहीम और उनके परिवार द्वारा किए गए कार्यों को प्रतीकात्मक तौर पर दोहराने का नाम है।
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