‘त्याग’ आध्यात्मिक
जीवन का मूल है। ‘त्याग’ का शाब्दिक
अर्थ होता है,परित्याग, छोड़ना या अस्वीकृति। एक बार रामकृष्ण परमहंस से किसी ने
पूछा कि भागवद् गीता का केन्द्रीय शिक्षण क्या है। तब परमहंस जी ने उसको उत्तर
देते हुए कहा- यदि तुम तेजी के साथ लगातार गीता शब्द बोलो तो आप ‘तागी - तागी’ कहना शुरू कर देते हैं और यही गीता का सार है। ‘तागी’ का मतलब होता है वह जिसने दुनिया को त्याग दिया हो।
भागवद् गीता
की बात की जाये तो उसमें त्याग का मतलब अपने रोजमर्रा के कर्तव्यों को छोड़ना और
मठ का जीवन जीने के लिए एक वैरागी बनना नहीं है। और न ही इसका मतलब दुनिया और इसके
मामलों के प्रति उदासीनता या वैराग्य धारण कर लेना है।
गीता में
त्याग कृत्य के त्याग करने को संदर्भित करती है, यह कृत्य (कर्म) में त्याग का
संकेत देती है। इसका अर्थ है कि अपना कर्त्तव्य निभाओ लेकिन वैरागी मन के साथ यानी
सभी कृत्यों को केवल भगवान को समर्पित करते हुए सांसारिक लाभ के बारे में सोचे
बिना करते चलो। यह ‘समर्पण’ त्याग का
सबसे महत्वपूर्ण घटक है।
बाल गंगाधर
तिलक ने अपने गीता रहस्य में कहा है कि गीता किसी भी प्रकार के त्याग की शिक्षा
देने की बजाय ऊर्जावाद या कर्म योग का उपदेश देती है। उनके अनुसार कर्म का नियम एक
ऊर्जावान सिद्धांत है क्योंकि जब तक कोई कर्म या कृत्य न किया जाए, तब तक अगोचर का
गोचर बनना या गुणवत्ता रहित का गुणवत्ता युक्त बनना संभव नहीं है।
आगे वे बताते
हैं कि ‘कोई भी व्यक्ति कृत्य से मुक्त नहीं है, और उस कृत्य या
कर्म को कभी छोड़ा नहीं जाना चाहिए।‘ बल्कि आदमी
को उन कृत्यों को करने में व्यस्त होना चाहिए जो ‘सर्वभूताहिते रीता’, यानि जो सभी
के कल्याण को बढ़ावा देते हैं।
भागवद्गीता
का सच्चा आदर्श मानवता के लिए बलिदान नहीं, अपितु मानवता की सेवा है। यह किसी भी
व्यक्तिगत लाभ, महिमा या जीत के लिए नहीं की जाती बल्कि यह अपने आप के लिए की जाने
वाली सेवा है। कोई भी व्यक्ति मानवता की सेवा करने में तभी सफल होता है जब वह अपने
कृत्यों को कुशलता के साथ और दक्षता से बिना परिणाम की चिंता किये करता है।
तिलक के
अनुसार त्याग का मतलब है एक आदमी जो कुछ भी करता है उसे उसके द्वारा बलिदान के
प्रयोजन के लिए किया गया माना जाना चाहिए। उनके कहने का आशय यह है कि कोई भी कर्म
व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं अपितु सभी के सामूहिक लाभ के लिए किया जाता है।
क्या किया
जाना चाहिए और क्या नहीं, इस बात का निर्णय करने पर अनेक कठिनाईंयाँ आती हैं क्योंकि
कृत्यों को क्रियान्वित करना आसान नहीं होता। यदि एक बार हमें यह ज्ञात हो जाये की
लोक कल्याण के लिए क्या अच्छा है, क्या नहीं तो फिर हमें पूरी ईमानदारी के साथ
बिना सफलता – असफलता की चिंता किये बिना पूर्ण विश्वास के साथ कथित कृत्य में अपने
आप को संलग्न कर देना होगा। परिणाम की चिंता किये बिना कार्य करने से उसे कुशलता
से करने और उच्चतम परिणाम प्राप्त करनें में मनोवैज्ञानिक तौर पर मदद मिलती है।
शंकराचार्य के अनुसार इसको उस ज्ञान के द्वारा प्राप्त किया जाता है जिसके हम
एजेंट मात्र हैं, क्योंकि असली कर्ता तो भगवान है।
तिलक के
शब्दों में कहा जाये तो, ‘गीता को न तो
लोगों को स्वार्थ की खोज में एक सांसारिक जीवन जीने के बाद थक जाने पर एक मनोरंजन
के रूप में प्रस्तुत किया गया, और न ही इस तरह के सांसारिक जीवन को जीने के लिए एक
प्रारंभिक सबक के रूप में’। यदि
वैराग्य की भावना अनुपस्थित है तो गीता तपस्वी जीवन को हतोत्साहित करती है। और
इसका मुख्य कारण यही है कि गीता का मुख्य प्रयोजन ही इस बात का खुलासा करना है कि इस
सांसारिक जीवन में किसी को कैसे जीना चाहिए और सांसारिक जीवन में हमारे सच्चे
कर्तव्य क्या है।
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