आखिर हर बात के लिए लड़कियों को ही दोषी क्यों ठहराया जाता रहा है? लेख की शुरुआत
अगर एक प्रश्न से हो तो थोड़ा विचित्र लगना सामान्य बात है लेकिन जिस किसी से यह
प्रश्न पूछा जाता है वो भी हतप्रभ सा ही हो जाता है और कोई जवाब नही आता..परन्तु
उत्तर ना मिलने से सवाल खत्म तो नही हो जाता!! ऐसा क्यों है कि अगर एक लड़की अपनी
आजादी माँगती है तो गलत हो जाती है....अगर वो माँ नहीं बन पाती तो वह बांझ कहलाती
है....अगर वह शादी नहीं करना चाहती है तो उसे चरित्रहीन की संज्ञा दे दी जाती है....अगर
वह अपने लिए जीना चाहती है तो उसे ‘स्त्री को त्याग की मूर्ति होती है’ का उदाहरण
देकर उसकी अपनी पहचान को कुचल दिया जाता है। और सबसे अधिक दुखदायी स्थिति तब होती
है जब समाज के बुरे तत्व या उसके अपने ही उसके साथ कोई दुराचार कर देते हैं तो भी उसके
पहनावे, उसके आचरण, उसके चाल चलन पर सवाल उठा कर उसको गलत ठहरा दिया जाता है। लेकिन क्या सच
में उसके कपड़े उसके प्रति ओछी मानिसकता का कारण बनता है? या असल में उसका दोष यह
है कि उसने इस पुरूष प्रधान समाज में एक लड़की बनकर जन्म लिया है?
यदि पूरी दुनिया में कम कपड़े पहनने से ही
महिलाओं पर अत्याचार हो रहे होते तो देश का हर कानून हर महिला को पूरे कपड़े पहनने
का फरमान जारी कर चुका होता और बढ़ रही महिला उत्पीड़न की समस्या कभी की खत्म हो
गई होती। मगर ऐसा देखने में नहीं आता...छोटी छोटी बच्चियों के साथ होते
दुर्व्यवहार के लिए समाज के ठेकेदार क्या कारण प्रस्तुत करेंगे? बुजुर्ग महिलाएं
तो शायद समाज के हर नियम का पालन करती हैं लेकिन उनके साथ होते गलत हरकतों के लिए
कौन जिम्मेदार है? समाज की इस गंदगी के लिए इंसान की गंदी विक़ृत मानसिकता है जिसे समाज के ठेकेदार
नजरअंदाज करते रहे हैं!
हम यह नहीं कहते कि आजादी के नाम पर हम अपनी
शर्म हया भूलकर भारतीय संस्कृति को अपमानित करें, मगर कम कपड़े पहनने वाली लड़की
को हमारा समाज गंदी नजर से देखे या उस पर गंदे ताने कसे यह भी सही नहीं है। देखा
जाये तो गलती कपड़ों की नही बल्कि हमारे दिमाग में पनप रही गंदी मानसिकता है जो
हमें ये आजादी दे देती है कि हम किसी भी लड़की पर छींटाकशी कर सकते हैं यही नहीं
उसकी अस्मिता तक से खेल कर सकते हैं।
लड़कियों के प्रति यह गंदी सोच या विक़ृत
मानसिकता आज से ही नहीं बल्कि पुराने समय से चली आ रही है। बस आज फर्क इतना है कि पहले लड़कियाँ आवाज नहीं उठाती थीँ
या उन्हें समाज में बदनामी के डर से माता-पिता चुप कर देते थे। लड़कियाँ अपनी गलती
न होने पर भी परिवार के दवाब में सब कुछ सहन करने के लिए मजबूर हो जाती थीं। इसका
कारण उस समय की मानसिकता थी जो लड़कियों को पूरी आजादी देने की पक्षधर नहीं थी।
समय बदल रहा है आज लड़कियाँ अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाती हैं,
वे खुलकर अपनी जिंदगी के फैसले ले रही हैं।
लेकिन विडंबना यह भी है कि ऐसी किसी स्थिति
में लोग साथ देने से पीछे हट जाते हैं, अपितु लड़कियों को उनकी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है। या तो
लोग मूक दर्शक बन जाते हैं या लड़कियों को ही समाज के नियम समझाने लगते हैं...शायद
उनके लिए यह समझना ज़रूरी है कि अगर कभी दुर्भाग्यवश वे किसी ऐसी परिस्थिति में आ
जायें तो क्या वे चुप रह कर सब कुछ सहन करना चाहेंगे?
इतना कहना काफी है कि किसी को यह हक नहीं है कि कोई अपनी भारतीय संस्कृति को
अपमानित करें मगर बार-बार भारतीय संस्कृति की दुहाई देकर लड़कियों का शोषण करना ये
संस्कृति भी सही नहीं है।जिस तरह से हमने तकनीकी के मामले में दिन-ब-दिन तरक्की की
है उसी तरह से हमें अपनी सोच को भी बदलना होगा।क्योंकि सच्चाई यही है कि हम आज भी
उसी पुरानी मानसिकता से जकड़े हुए हैं जिसे हमें कब का छोड़ देना चाहिए था। इसलिए
आज के बदलते दौर में यह बेहद जरूरी है कि हम विकृत मानसिकता को बदलें और महिलाओं
को एक भोग की वस्तु ना समझें। और उनके प्रति होने वाले अपराधों को रोकने के लिए
उठाये जाने वाले कदम उनके ऊपर ही सवाल खड़ा ना करें अपितु सही दोषी को सजा देने का
प्रावधान सुनिश्चित करें।
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