भारत प्राचीनकाल से ही एक विकासशील देश रहा है। प्रचीन भारत ने भी प्रगति की
थी और आधुनिक भारत भी प्रगति के पथ पर अग्रसर है। किन्तु क्या प्रगति का अर्थ है
अपनी संस्कृति को खोना? यदि नहीं तो ऐसा क्यों हो रहा है? यह हम भारतीयों के लिए एक
विस्मरणीय तथ्य है। संस्कृति को खोकर कुछ हासिल कर लेने को कभी भी प्रगति की
संज्ञा नहीं दी जानी चाहिए। वास्तविक प्रगति तो वह है जिसमें हम सामाजिक, राजनैतिक
और आर्थिक मामलों में आगे बढ़ने के साथ-साथ अपनी संस्कृति को भी आगे बढ़ाऐं।
संचार क्रांति, कंप्यूटर युग, सारी
चीजों का जनक बना
हर कठिन कार्य को सरल बना, मानव,
वैभव का कनक बना।
सुख साधन का अंबार मानव हित में
वरदान बना
विज्ञान हमारे जीवन के हर पहलू का
आधार बना
इसके अतिरिक्त हमारा राष्ट्र आज एक परमाणु सम्पन्न राष्ट्र बन चुका है। गिने-चुने
कुछ समृद्ध देशों में हमारे देश की भी गणना है। किन्तु आज बहुत कुछ पाने की चाह ने
हमें अंधा बना दिया है और जिसके चलते आज हम अपने मूल्यों को ही खोते जा रहे हैं।
विश्व में राष्ट्रीय भावना का प्रचार करने वाला राष्ट्र स्वयं ही अपनी राष्ट्रीय
भावना से वंचित होता जा रहा है। इसके लिए देश के नागरिक ही उत्तरदायी हैं।
राष्ट्र की राष्ट्रीयता को दृढ़ करने के लिए एक सूत्रता की आवश्यकता होती है। इसीलिए
राष्ट्रीय भावना को बनाये रखने और देशवासियों को एक सूत्र में पिरोने के लिए सभी
राष्ट्र अपने राष्ट्रीय चिन्ह, राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीयगीत, राष्ट्रीय ध्वज और
अपनी औपचारिक भाषा का निर्धारण करते हैं। इसमें से भाषा ही एक ऐसा माध्यम है जो
राष्ट्र को राष्ट्रीयता के सूत्र में बांधती है और राष्ट्रीय चेतना का विकास करती
है। हम सभी जानते हैं अपने देश की भाषा
है-हमारी मातृभाषा हिन्दी।
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को
मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय
को शूल
आज हम हिन्दी बोलने व लिखने में सकुचाते हैं, हिन्दी का प्रयोग करना अपने
सम्मान के प्रतिकूल लगता है। आज ऐसा लगता है जैसे हम अग्रेजों की दासता से शारीरिक
रूप से तो स्वतंत्र हो गये हैं लेकिन मानसिक रूप से तो आज भी पराधीन हैं। इसका एक
उदाहरण है अग्रेंजी भाषा का अधिक प्रयोग। जो भारतीयों की रग-रग में वास करती है।
अग्रेंजी के चलते हम अपनी निज भाषा को भूलते जा रहे हैं और इसे ही उन्नति की भाषा
मानकर इसके विकास में दिन रात लगे हैं।यह हमारे लिए ही नहीं हमारे देश और संस्कृति
सभी के लिए अपमान की बात है।
अग्रेंजी बोलना बुरा नहीं है, उसका विकास करना भी गलत नहीं है, अपितु गलत तो अग्रेंजी को ही अपनी समृद्धि का एक मात्र
साधन मानकर उसके विकास में लगे रहना और अपनी भाषा को भूलना सही नहीं है। वर्तमान
में तो अग्रेंजी भाषा ने हमारी राष्ट्रीयता में भी हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया
है।
हम भूल गये हैं यह रूपवती
विश्वहरिणी हमारी पराधीनता का अवशेष है।
चीन जापान आदि देश भी अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करते हैं किन्तु आज भी चीन की सरकारी
भाषा चीनी और जापान की जापानी है। क्या ये देश प्रगति नहीं कर रहे या हम से कम कर
रहे हैं? हम जानते हैं ऐसा नहीं है। बस ये देश दूसरी भाषा का अपने यहाँ प्रयोग
अपने स्वाभिमान के खिलाफ मानते हैं।
वास्तव में जो राष्ट्र अपनी भाषा का मान नहीं करता वह सांस्कृतिक एवं
साहित्यिक क्षेत्र में कभी प्रगति नहीं कर पाता और अपने गौरव से वंचित होकर शीघ्र
ही पतन की और अग्रसर हो जाता है। भारत अपने सांस्कृतिक और साहित्यिक
गौरव से अब तक कभी वंचित नहीं हुआ है पर हिन्दी के प्रति यदि यही रूझान रहा तो भविष्य
में ऐसा हो भी सकताहै। देश का गौरव कम न हो इसके लिए हम सब
भारतीयों को सोचना होगा
बढ़ता भारत गिरती हिन्दी नहीं बल्कि लोगों से कहलायें बढ़ते भारत की बढ़ती
हिन्दी।
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