रामप्रसाद बहुत ही सरल स्वभाव के मिलनसार व्यक्ति थे। उन्होंने अपने बेटे शाश्वत को अपनी पत्नी के देहान्त के बाद अकेले ही पाला था। तुम्हारी अभी उम्र ही क्या है, और शाश्वत को माँ मिल जायेगी...आदि कहकर लोग रामप्रसाद को दूसरा विवाह करने के लिये समझाते पर वह हमेशा यह कहकर टाल जाते की शाश्वत के रूप में मेरे पास पत्नी की निशानी है जो मेरे लिए काफी है। समय बीतता गया शाश्वत पिता के साथ काम करने लगा...धीरे-धीरे रामप्रसाद ने सारा कारोबार बेटे को सौंप दिया और स्वयं मन के अनुसार कभी ऑफिस आते कभी दोस्तों के साथ समय व्यतीत करते।
शाश्वत बहुत ही जिम्मेदार व समझदार था! उसने जल्दी ही सारा कारोबार अच्छी तरह संभाल लिया। उसके लिए विवाह के लिए प्रस्ताव आने लगे। रामप्रसाद ने बेटे की पसंद से उसका विवाह स्वाति से बहुत धूमधाम से किया और स्वाति को बहू बनाकर घर ले आये...उसे घर की जिम्मेदारी सौंपकर अब वह घर और व्यापार की तरफ से निश्चिंत हो गये।
बेटे के साथ ही बहू स्वाति भी उनकी इच्छाओं व जरूरतों का ध्यान रखती...यह देखकर शाश्वत भी पिता की तरफ से निश्चिंत हो गया। कुछ समय तक सब कुछ ठीक चल रहा था पर कुछ दिन से शाश्वत को पिता के प्रति स्वाति का बर्ताव बदला सा लग रहा था, पर उसने अपना भ्रम समझकर इस बात को उठाना उचित नहीं समझा...पिता ने भी इस बारे में शाश्वत से कभी कुछ नहीं कहा और समय बढ़ता गया।
एक दिन दोपहर के समय रामप्रसाद खाना खा रहे थे ..उसी समय खाना खाने शाश्वत भी घर आ जाता है और थोड़ी देर में खाना खाने की बात कहकर वह कमरे में चला जाता है। रामप्रसाद ने अपनी बहू स्वाति को आवाज लगाते हुए थोड़ी दही देने के लिए कहा। स्वाति ने रसोई में से ही जोर से कहा, “पिताजी आज दही नहीं है।“ बहू की चिढ़ी हुई आवाज़ सुनकर वे चुपचाप खाना खाकर चले गए। थोड़ी देर बाद स्वाति अपना और शाश्वत का खाना लगाकर कमरे में ले जाती है । अपनी थाली में कटोरी भरा दही देखकर उसे गुस्सा आता है पर वह स्वाति से कुछ कहे बिना ही ऑफिस चला जाता है।
अगले दिन वह रामप्रसाद के पास जाकर उससे दूसरी शादी करने के लिए कहता है। इतने सालों बाद और ऐसे अचानक से बेटे के मुंह से विवाह की बात सुनकर उन्हें कुछ समझ नहीं आता। वह शाश्वत से कहते हैं, “बेटा अब दूसरी शादी..मुझे पत्नी की जरूरत नहीं है और मैं समझता हूँ कि तुम्हें भी माँ की जरूरत नहीं है...और अब तो घर की देखभाल करने के लिए बहू आ ही गयी है....।
शाश्वत कहता है, “आप सही कह रहे हैं...लेकिन न तो मैं माँ लाना चाहता हूँ न आपके लिए पत्नी लेकिन मैं आपके लिए ऐसा साथी लाना चाहता हूँ जो आपके लिए दही का इंतजाम कर सके। आपको किसी चीज की कमी न होने दे...जो हर चीज का ध्यान रख सके।“ वह आगे कहता है, “आज से मैं ऑफिस मे एक कर्मचारी की तरह वेतन लेकर काम करूँगा ताकि आपकी बहू को हर चीज की कीमत का पता चले।“ स्वाति रसोई घर में खड़ी सब सुन रही थी और शाश्वत के कहा हर एक शब्द उसे समझ भी आ रहे था! लेकिन अब अपनी गलती पर पछताने और पश्चताप करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था!
देखा जाये तो जो माता-पिता अपने बच्चे की इच्छा को पूरा करने के लिए कभी परेशानी का अनुभव नहीं करते, यथाशक्ति एटीम कार्ड बने रहते हैं। उनकी सेवा करने ,इच्छाओं का ध्यान रखने में, उनके साथ समय बिताने में बड़े होकर बच्चों को परेशानी होने लगती है। सच तो यह है घर के बुजुर्गों की छत्रछाया में तो सारा परिवार महफूज़ रहता है। थोड़ा प्यार और सम्मान पाकर वे असंख्य और अमूल्य आशीर्वादों की झड़ी लगा देते हैं। वास्तव में शाश्वत ने जैसे अपने पिता के मान को बनाये रखने के लिए कदम उठाया वह अनुकरणीय है, क्योंकि माता-पिता तो पहले आप के हैं। दूसरे को दोष देने से पहले आप स्वयं वे करें जो आप दूसरे से उम्मीद रखते हैं।
माता-पिता ईश्वर की वो सौगात हैं,
जो हमारे जीवन की अमृतधार है!
उनसे ही हमारे जीवन की शुरुआत है,
उनसे ही हमारी खुशियाँ आबाद हैं,
वे ही हमारे जीवन का आधार हैं,
उनसे हैं हम, और उनसे ही ये सारा जहांन है!
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