ममता ने एक बार फिर कहा, “ भैया दे
दो न!“ आज उसने कपड़े के बदले बर्तन देने वाले को बुला रखा था और एक भगोना पसन्द
कर कपड़े के लिए मोलभाव कर रही थी। उसने भगोने के बदले बर्तन वाले को तीन साड़ी दी
तो बर्तन वाले ने भगोना वापस अपने हाथ में लेते हुए कहा "नही दीदी, बदले में चार
साड़ियों से कम तो नही लूँगा।" ममता ने अपनी बात रखते हुए कहा "अरे भैया,
साड़ी एक-एक बार की ही पहनी हुई तो
हैं..बिल्कुल नये जैसी। इसके बदले में तो ये तीन भी ज्यादा हैं, मैं
तो फिर भी दे रही हूँ। लेकिन बर्तन वाला नहीं माना।
अभी वे दोनों अपनी बात पर एक दूसरे को सहमत करने की कोशिश कर रहे थे,
तभी वहाँ गुजरती एक गरीब अर्द्धविक्षिप्त महिला ने ममता से कुछ खाने को माँगा। ममता
ने बहुत हिकारत की नजर से उसे देखा। उस गरीब महिला ने कतरनों को जोड़-जोड़कर बनाई
गई साड़ी पहन रखी थी जो उसके शरीर को ढँकने का असफल प्रयास कर रही थी। सुबह –सुबह
माँगने आई है यह सोचकर ममता ने अंदर से रात की बची कुछ रोटियाँ लाकर उसे दे दी।
फिर वह बर्तन वाले से मोलभाव मे लग गई उसने कहा "तो भैय्या क्या
सोचा ? तीन साड़ियों में दे रहे हो या मैं वापस रख लूँ !" बर्तन वाले
ने इस बार चुपचाप उसे बर्तन दे दिया और अपना कपड़ों का गठ्ठर बाँध कर बाहर गली में
चला गया। ममता अपने मन मुताबिक कपड़ों में बर्तन पाकर खुश थी। वह दरवाजा बंद करने
के लिए गई तो उसने देखा गली के मुहाने पर वही बर्तन वाला अपना गठ्ठर खोलकर उसकी दी
हुई साड़ियों में से एक साड़ी उस अर्धविक्षिप्त महिला को दे रहा था...। ममता इस दृश्य
को देख ही रही थी कि तभी मोबाइल बजा और दूसरी तरफ से शाम को किसी महिला उत्थान
कार्य में जाने की बात होने लगी। वह थोड़ी देर पहले अपने द्वारा किये गये व्यवहार
को भूलकर जाने की तैयारी में लग गई।
ऐसी कई घटनाएँ समाज में देखने को मिल जाती जहाँ दोहरे चरित्र को जीवित
कर दिया जाता है। ममता के दरवाज़े पर आई उस महिला की मदद ना करना और किसी सामाजिक संस्था
में जाकर कार्य करना क्या सही है?
हाल में ही चल रहे कोरोना संकट के समय जो संस्थाएं काम कर रहीं थी उनसे मदद
वास्तविक जरूरतमंद को नहीं मिल पा रही थी, वे मीडिया में प्रचार के लिए सब कर रहे
थे... लेकिन जो वास्तव में मदद करने मे लगे थे उन्हें नाम या पहचान की कोई चिंता
नहीं थी। ईश्वर का दिया सब कुछ होने पर भी हम किसी की मदद करने से कतराते हैं।
आज के दौर में सहायता के मायने शायद बदल गए हैं। मदद से ज्यादा लोग
उस कार्य का दिखावा करने में विश्वास रखते हैं! “नेकी कर कुएं में डाल” वाली कहावत
शायद अब लोग भूल चुके हैं...अब लोग नेकी करते ही इसलिए हैं कि लोग देख पाएं और उनके
व्यक्तित्व की तारीफ हो! इसलिए कई बार जिनको वास्तव में सहायता की आवश्यकता होती
है वो सामने आ ही नही पाते..
आज सामाजिक कार्य के नाम पर लोग भावनाओं से खेलने से भी पीछे नहीं रहते...सहायता
करने से अधिक उन्हें इस इस बात कि चिंता होती है कि सोशल मीडिया में उनकी चर्चा हो
रही है या नहीं...लोग इसके चलते कई बार लोगों के दुखों की नुमाइश तक कर जाते
हैं...लोगों के आंसू दिखाने की होड़ में उनके दर्द को कोई दूर नहीं करता बल्कि कई
बार उन्हें बढ़ा दिया जाता है ताकि वो अपने व्यक्तित्व को और बड़ा दिखा पाएं!
हमें समझना चाहिए कि किसी के दर्द का मजाक बना कर या उसका इस्तेमाल
अपने फायदे के लिए करना इंसानियत नहीं है! किसी ने सही कहा है,
“आज दुनिया में महान बनने की चाहत तो हर किसी में है, लेकिन उससे
पहले इंसान बनना हर कोई भूल जाता है”
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें