आज ऋचा को कार्यालय की ओर से अपनी
सेवाओं के लिए प्रशंसा पत्र मिला है। देखा जाए तो ऋचा के पास क्या नहीं है, एक अच्छी
नौकरी, एक भरा पूरा परिवार और समाज में प्रतिष्ठा। घर पहुँच कर ऋचा ने मिले
प्रशंसा पत्र को मेज पर रख दिया और किसी भी आम दिन की तरह घर के कामों में जुट गयी।
शाम को मेज पर रखे प्रशंसा पत्र पर ऋचा की बेटी की नजर गयी और उसने माँ को बधाई
देते हुए अपने पिता से कहा कि आज तो पार्टी होनी चाहिए। अजीब सी मुस्कान के साथ
ऋचा के पति ने बोला कि ऐसा तो नहीं हैं ना कि कार्यालय ने भी मेरी तरह तरस खाकर
तुम्हारी माँ के सावलें रंग को देखते हुए उसकी हौसला अफजाई कर दी हो! इस बात को
ऋचा ने ऐसे सुन कर अनसुना किया जैसे यह तो आम बात थी! रात हुई सब अपने काम में
व्यस्त थे लेकिन ऋचा के मन में सालों से बसा सवाल फिर से सर उठा रहा था कि क्या
गोरा रंग ही योग्यता का प्रमाण है? आज ऋचा को एक पत्नी और एक बहू बने 20 साल हो
गये...इस बीच वो एक माँ भी बन गयी लेकिन आज भी उसकी पहचान बस इतनी है कि उसका रंग सावंला
है और उससे शादी करके उसपर एक एहसान किया गया था और उसके माँ-बाप की जिम्मेदारी पूरी
हो गयी थी। इन वर्षों में उसने अपनी निजी और प्रोफेशनल जीवन के हर क्षेत्र में
स्वयं को साबित किया है और लोगों के उसे पहचाना भी लेकिन हर बार उसके साथ एक वाक्य
जोड़ दिया जाता, बस ज़रा रंग थोडा साफ़ होता तो क्या बात होती!! आज इतने वर्षो बाद भी
ऋचा के पास इस सवाल का कोई उत्तर नहीं कि क्या गोरा रंग ही व्यक्ति के बाकी गुणों
को मापने का मापदंड है?
यह सोच हमारे समाज की एक कड़वी सच्चाई
है। यह ऋचा की ही कहानी नहीं है बल्कि यह हर उस लड़की की कहानी है जिसका
रंग गोरा नहीं है। कहने को तो हर कोई कह देता है सूरत नहीं सीरत देखनी
चाहिए....गुणों की महक हमेशा रहती है रंग नहीं ... रंग तो उम्र के साथ ढल जायेगा न जाने क्या क्या। पर जब अपने
ऊपर बात आती है तो सब भूल जाते हैं और उन्हें भी लड़की पढ़ी-लिखी होने के साथ गोरी
चाहिए, चाहें फिर अपना लड़का काला ही क्यों न हो। यानि लड़की का रंग साफ न होना
उसके सभी गुणों पर भारी पड़ता है।
भले ही ऋचा ने अपने आत्मविश्वास को
बनाये रखा और अपने जीवन में धैर्य के साथ आगे बढती चली गयी । उसने यह साबित करने
की पूरी कोशिश की कि रंग किसी के गुणों का पैमाना नहीं होता पर क्या वो मानसिकता
बदल पायी? या क्या उसकी मानसिक स्थिति को किसीने समझ कर उसके गुणों को पहचान दी?
यहाँ तो ऋचा ने अपनी हिम्मत से खुद की पहचान मिटने नहीं दी लेकिन हर लड़की ऐसा नहीं
कर पाती। कई लड़कियों को समाज के साथ- साथ अपने खुद के घर और ससुराल वालों के
कटाक्ष सहने पड़ते हैं जिसका परिणाम अच्छा तो अवश्य नहीं होता। या तो लड़की
कुंठाग्रस्त हो जाती है और कड़वाहट से इतनी भर जाती है, कि उसे जब भी मौका मिलता है
तो वह अपनी बहू या अन्य लडकियों को बातों के शूलों से घायल करती है। या फिर
लड़कियों का आत्मविश्वास टूट जाता है और उनकी हर विशेषता खो जाती है।
समाज की इसी मानसिकता का फायदा कॉस्मेटिक
कंपनियों के उत्पाद उठाते हैं। हर कंपनी गोरा करने वाली क्रीम बेचती है और इसकी
ग्राहक जाहिर सी बात है महिलाएं ही होती हैं। मजे की बात तो यह है कि अब यह गोरेपन
का भूत धीरे- धीरे पुरुषों को भी सताने लगा है। अगर देखा जाये तो यह गोरा करने का
सिलसिला क्रीम से शुरू नहीं हुआ, बल्कि घरों में बनने वाले उबटन भी तो रंग निखारने
के लिए उपयोग किये जाते हैं ना कि त्वचा को स्वस्थ करने के लिए। माँ अपने मन में
चाहें जानती हो और चाहें कहती भी हो कि उसकी बेटी में हजारों गुण हैं लेकिन फिर भी
उसे अपने चेहरे पर उबटन या बाज़ार की क्रीम लगाने के लिए अवश्य कहती है क्योंकि वह
भी समाज की इस ‘गोरा है तो अच्छा है’ मानिसकता के सामने सिर झुकाने के अलावा कुछ
कर नहीं सकती।
यह सब देखते और सुनते हुए मन में कई
सवाल आते हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि अगर गोरा होना ही किसी व्यक्ति के
अच्छे होने का प्रमाण है तो फिर हर गोरी स्त्री सफल क्यों नहीं? यदि गोरा होना ही
एक मात्र योग्यता है तो क्यों लोग काली माँ के भक्त हैं? क्या रंग के
सामने लड़की के गुणों का कोई मोल नहीं है? और अगर गोरा रंग ही एक मात्र योग्यता का
मापदंड है तो यह सिर्फ लड़की के लिए ही क्यों मान्य है, यह तो लड़का- लड़की दोनों के
लिए होनी चाहिए...। जिस दिन समाज में इस गोरेपन का चलन लड़के और लड़की दोनों पर लागू
होने लगा उस दिन शायद इस मानिसकता से थोड़ी शिकायतें कम हो जाएंगी क्योंकि उस दिन
कहीं तो समानता आएगी!!
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