उपन्यासों और कहानियों से मुझे बहुत प्रेम
है। जब भी समय मिलता है अपनी अलमारी में सजी किताबों में से एक निकाल उन्हें पढ़ने
बैठ जाती हूँ। कुछ दिन पहले इसी क्रम में मैं मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित ‘सेवासदन’ पढ़ने बैठी। वैसे तो मैंने यह उपन्यास पहले भी पढ़ा है, लेकिन इस बार इस
उपन्यास में प्रेमचंद द्वारा उठाये गए सवालों ने मुझे खुद कुछ लिखने पर मजबूर कर
दिया। सेवासदन अपने पाठकों के लिए एक अहम् सवाल उठाता है- ‘ईश्वर वह दिन कब
लावेगा कि हमारी जाति में स्त्रियों का आदर होगा’? और इतने सालों
बाद भी हम इस सवाल का जवाब नहीं खोज पाए हैं। सारी शिक्षा-दीक्षा, स्त्री-विमर्श,
स्त्री सशक्तिकरण के बावजूद यह सवाल वैसे का वैसा बना हुआ है। समाज में स्त्री को
अब भी प्रतिदिन अग्नि परीक्षा से गुजरना होता है।
सेवासदन सुमन नाम की एक लड़की की कहानी है,जिसे
परिस्थितिवश वेश्या का जीवन अपनाना पड़ता है। वेश्या जीवन में मिलने वाले झूठे
सम्मान और ऐश्वर्य में उनका मन नहीं रमता है और वह सामान्य जीवन में वापस लौट आती
है।
प्रेमचंद इसमें यह सवाल भी उठाते हैं क्या
ऐसी स्त्री की सामान्य जीवन में वापसी संभव है? हमारा मिथक हमारा इतिहास
उठाकर देखें तो जिस भी स्त्री ने लक्ष्मण रेखा को पार करने की हिमाकत की, उसे
चाहें वह जितनी अग्नि परीक्षाओं से गुजरी हो पर उसकी घर वापसी संभव नहीं हो सकी।
जीवनभर की अग्नि परीक्षाओं से गुजरने के बाद भी उसका वास्तविक सम्मान वापस नहीं
मिलता। हर कोई उसे संदेह की दृष्टि से देखता है। हर किसी के मन में उसके लिए
अविश्वास और असम्मान का भाव भरा होता है।
सेवासदन में सुमन के पति गजाधर पांडे के मन
में सुमन के साथ किये अन्याय व दुर्व्यवहार को लेकर चाहें कितना पश्चाताप हो,
लेकिन वह घर नहीं बसाता। वह सुमन के लिए सेवासदन ही बनाता है। यह जानते हुए भी की
सुमन पूरी तरह से निर्दोष है,लेकिन वह भी समाज के सामान्य बोध का अतिक्रमण नहीं कर
पाता।
सुमन का वेश्या बनने का निर्णय ही रूढ़िग्रस्त समाज को झटका देने का एक
तरीका है और जब वेश्या बनी सुमन विट्ठलदास से कहती है- ‘इस मंडी में मैं ही एक ब्राह्मणी नहीं
हूँ,दो-चार नाम तो मैं अभी ले सकती हूँ, जो बहुत ऊँचे कुल की हैं, लेकिन जब
बिरादरी में अपना निबाह किसी तरह न देखा, तो विवश होकर यहाँ चली आईं।जब हिन्दू
जाति को खुद ही लाज नहीं है, तब फिर हम जैसी अबलाएं उसकी रक्षा कहाँ तक कर सकती
हैं?’
आखिर प्रेमचंद को इतने कठोर वचन बोलने की
जरूरत क्यों पड़ी? शायद वे देख रहे थे कि सभी सामाजिक संस्थाएं, इतिहास, पोथियाँ स्त्री को
लांछित करने में लगी हुई हैं और प्रकारांतर से स्त्री के बारे में इस सामान्य बोध
को बनाने और बनाए रखने में जुटी हुई हैं।
प्रेमचंद ने स्त्री मुक्ति के सवाल को यूँ ही
नहीं उठाया था, बल्कि इस सामाजिक संरचना में मौजूद श्रृंखला की उन कड़ियों की
पड़ताल कर रहे थे, आगे चलकर महादेवी वर्मा ने जिन्हें रेखांकित किया।
महादेवी ने वेश्यावृत्ति के लिए जीवन का
व्यवसाय शब्द का प्रयोग किया है। समाज जिसे वेश्या कहकर पुकारता है महादेवी उसे
वेश्या नहीं मानती,वे इसके लिए संस्थानीत (कु)संस्कारों को जिम्मेदार मानती हैं।
जीवन का व्यापार सबसे बड़ा अभिशाप हैं प्रेमचंद और महादेवी दोनों ही अपने साहित्य
(रचनाओं) में इस बात पर सहमत दिखाई दिये।
प्रेमचंद बताते हैं कि दालमंडी(वेश्याओं का
मुहल्ला)जिसे आज हम रेड लाइट कह देते हैं वहीं आबाद हो सकते हैं, जहां मनुष्यता
अपने निचले स्तर पर आ गिरी है- ‘यह हमारी ही कुवासनाएं,
हमारे ही सामाजिक अत्याचार, हमारी ही कुप्रथाएं हैं, जिन्होंने वेश्याओं का रूप
धारण किया।यह दाल मंडी हमारे जीवन का कलुषित प्रतिबिंब,हमारे ही पैशाचिक अधर्म का
साक्षात स्वरूप है’।
देखने वाली बात यह है कि दोनों ही लेखक संवाद
पर भरोसा करते हैं। दोनों संवाद से ऐसे पुरूषों की खोज करते हैं, जो कुसंस्कारों
से घृणा कर सकें और ऐसा समाज विकसित कर सकें, जहाँ स्त्रियों को किसी दालमंडी या
सेवासदन में शरण न लेनी पडे।
दुःख की बात ये है कि इतने वर्षों पहले
प्रेमचंद जी ने जिस नजरिये की बात की थी, वह आज तक नहीं अपनाया गया। पर आज समाज को
अपनी सोच बदलने की आवश्यकता है, यह सोचना होगा कि महिलाओं को ऐसा करने पर मजबूर
किसने किया, कौन इसके लिए जिम्मेदार है। आखिर कब हमारा समाज अपनी दोगली सोच से
मुक्त होकर पुरुष और नारी को समान रूप से देख पायेगा? आखिर कब समाज में नारी को
अबला का दर्जा देकर उसका शोषण करने की प्रथा बंद होगी? आखिर कब....यह सवाल
साहित्य में कई बार पूछा गया है...पूछने वाले साहित्यकारों ने चाहें अपनी जीवन
यात्रा पूरी कर ली हो लेकिन उनके सवाल आज भी उतने ही ज्वलंत हैं...सेवासदन को पूरा
पढ़ कर रखते हुए, बस एक ही आशा है कि अगली बार जब इस उपन्यास को पढूं तो मेरे पास
कुछ सवालों के उत्तर अवश्य हों!
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