भगवान की दुविधा ....
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एक बार सृष्टि के रचियता भगवान खुद दुविधा में पड़ गए! उन्होंने अपनी समस्या के निराकरण के लिए देवताओं की बैठक बुलाई और बोले, "देवताओं, मैं मनुष्य की रचना करके कष्ट में पड़ गया हूं। कोई न कोई मनुष्य हर समय शिकायत ही करता रहता हैं, जबकी मैं उन्हें उनके कर्मानुसार सब कुछ दे रहा हूँ। फिर भी थोड़ा सा कष्ट होते ही वे मेरे पास आ जाता हैं। जिससे न तो मैं कहीं शांतिपूर्वक रह सकता हूं, न ही तपस्या कर सकता हूं। आप लोग मुझे कृपया ऐसा स्थान बताएं, जहां मनुष्य नाम का प्राणी कदापि न पहुंच सके।"
प्रभू के विचारों का आदर करते हुए देवताओं ने अपने-अपने विचार प्रकट किए। एक ने सुझाव देते हुए कहा, "आप हिमालय पर्वत की चोटी पर चले जाएं।" लेकिन भगवान ने कहा, "यह स्थान तो मनुष्य की पहुंच में है। उसे वहां पहुंचने में अधिक समय नहीं लगेगा।" एक अन्य देव ने कहा कि भगवान को किसी महासागर में चले जाना चाहिए। इसी तरह देवगणों में से एक ने भगवान को अंतरिक्ष में चले जाने के लिए कहा। लेकिन भगवान अभी भी दुविधा में ही थे, उन्होंने कहा कि एक दिन मनुष्य वहां भी अवश्य पहुंच जाएगा। भगवान निराश होने लगे.. वह मन ही मन सोचने लगे, “क्या मेरे लिए कोई भी ऐसा गुप्त स्थान नहीं है जहां मैं शांतिपूर्वक रह सकूं"। अंत में, बहुत सोचने के बाद, देवगणों ने भगवान से कहा, "प्रभू! आप ऐसा करें कि मनुष्य के हृदय में बैठ जाएं! मनुष्य अनेक स्थान पर आपको ढूंढने में सदा उलझा रहेगा, पर वह यहाँ आपकी तलाश कदापि न करेगा।" ईश्वर को यह बात पसंद आ गई। उन्होंने ऐसा ही किया और वह मनुष्य के हृदय में जाकर बैठ गए।
उस दिन से मनुष्य अपना दुख व्यक्त करने के लिए ईश्वर को मन्दिर, अन्दर, बाहर, आकाश- पाताल आदि में ढूंढ रहा है। परंतु मनुष्य कभी भी अपने भीतर- "हृदय रूपी मन्दिर" में बैठे हुए ईश्वर को नहीं देख पाता...अगर वह यह जान ले कि भगवान उसके अंदर हैं और अन्य जीवों के अंदर भी उनका वास होता है तो कई समस्याओं का समाधान उसे स्वयं ही मिल जायेगा....
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