हिन्दी - भाषा नहीं एक भावना

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भारत की प्यारी भाषा है हिन्दी, जग में सबसे न्यारी भाषा है हिंदी! जन-जन की भाषा है हिंदी, हिन्द को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा है हिंदी! कालजयी जीवनरेखा है हिंदी, जीवन की परिभाषा है हिंदी!  हिंदी की बुलंद ललकार से थी हमने आज़ादी पाई, हर देशवासी की थी इसमें भावना समाई! इसके मीठे बोलों में है ऐसी शक्ति, अपने ही नहीं, परायों को भी अपना कर लेती! हर भाषा को अपनी सखी-सहेली है मानती, ऐसी है हमारी अनूठी अलबेली हिंदी!   संस्कृत से निकलती है हिंदी की धारा, भारतेंदु जयशंकर ने इसे दुलारा! जहाँ निराला महादेवी ने इसको सँवारा, वहीं दिनकर और सुभद्रा ने इसको निखारा! ऐसे महापुरुषों की प्यारी है हिंदी, हिन्द का गुरूर है हिंदी!   विडम्बना है कि हिंदी को राष्ट्र धरोहर मानते हैं, फिर भी लोग हिंदी बोलने में सकुचाते हैं! वैदिक काल से चली आ रही भाषा को छोड़, विदेशी भाषा बोलने में अपनी झूठी शान मानते हैं! पर आज तो विदेशी भी ‘हरे रामा-हरे कृष्णा’ बोलकर, हिंदी संस्कृति के रंगों में रंग जाते हैं!   तत्सम, तद्भव, देशी-विदेशी सभी रंगों को अपनाती, जैसे भी बोलो यह मधुर ध्वनी सी हर के मन में बस जाती। ...

'खुशियों' का डिब्बा..

मुकुंद और उसकी पत्नी मैत्री को अपने सारे सुख-दुःख आपस में साझा करते 50 साल बीत गए थे। मुकुंद ने मैत्री से शायद ही कभी कुछ छिपाया हो। मैत्री ने भी अपने पति से सिवाय एक लकड़ी के डिब्बे के सब कुछ साझा किया था। मुकुंद ने कई बार उस डिब्बे के बारे में जानने की कोशिश की थी लेकिन हर बार मैत्री मना कर देती थी...लेकिन एक दिन जब मुकुंद ने मना करने का कारण ही पूछ लिया तो मैत्री ने अपने पति से वादा किया कि सही समय आने पर वह खुद उसे डब्बे के बारे में बता देगी लेकिन तब तक वह कभी भी उस डिब्बे के बारे में उससे कुछ नहीं पूछेगा और ना ही कभी उसे खोलेगा।

उसके बाद मुकुंद ने भी कभी पत्नी से उस डिब्बे के बारे में बात नहीं की। मैत्री की तबीयत अकसर खराब रहती थी। एक दिन उसकी तबीयत काफी बिगड़ गयी और उसे लगने लगा कि अब उसका ज्यादा जीवन नहीं बचा है। तब उसने पति से अलमारी से डिब्बा निकाल कर लाने को कहा..मुकुंद पत्नी के पास डिब्बा लेकर आया तो मैत्री ने उसे खोलने को कहा। मुकुंद ने डिब्बा खोला तो देखा कि उसके अंदर हाथ से बनी हुई दो गुड़िया और बहुत सारे पैसे रखे हैं।

उसने हैरान होते हुए उन चीजों के बारे पत्नी से पूछा। मैत्री ने बताते हुए कहा, “जब हमारी शादी हुई तब मेरी दादी ने विदा होते समय मुझसे कहा था कि सुखी वैवाहिक जीवन के लिए कभी तकरार मत करना। जब भी तुम्हे अपने पति पर गुस्सा आए तो अपने हाथों से एक गुड़िया बनाना।“

यह सुनकर मुकुंद की आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी! उसे इस बात की इतनी ख़ुशी हो रही थी कि 50 साल के सुखमय वैवाहित जीवन में उसकी पत्नी को सिर्फ 2 बार ही उस पर गुस्सा आया था। फिर खुद पर नियन्त्रण करते हुए वो बोला, “मैत्री, गुड़ियों के बारे में तो तुमने बता दिया अब ये भी बता दो कि इतने ढेर सारे रूपये तुम्हारे पास कहाँ से आये?” मैत्री ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “वो तो मैंने, इतने सालों में, गुड़िया बेचकर जमा किये हैं।“

यह सुनकर मुकुंद का मुँह खुला का खुला रह गया...वह यह सोचने लगा कि इतने सालों में उसने मैत्री को इतनी बार गुस्सा दिलाया था कि इतनी गुड़िया बन गयीं जिन्हें बेच मैत्री ने इतने पैसे कमा लिए!?  

वास्तव में पत्नियाँ या महिलाएं होती ही ऐसी हैं जो अपने जीवनसाथी व परिवार की खुशी के लिए ना जाने कितनी ही इच्छाओं और चीजों का बलिदान देती हैं। इसके साथ ही सुख शांति बनाये रखने के लिए वह कितनी ही गलतियों को नज़रअंदाज़ कर परिवार को जोड़े रखती हैं।



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