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हिन्दी - भाषा नहीं एक भावना

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भारत की प्यारी भाषा है हिन्दी, जग में सबसे न्यारी भाषा है हिंदी! जन-जन की भाषा है हिंदी, हिन्द को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा है हिंदी! कालजयी जीवनरेखा है हिंदी, जीवन की परिभाषा है हिंदी!  हिंदी की बुलंद ललकार से थी हमने आज़ादी पाई, हर देशवासी की थी इसमें भावना समाई! इसके मीठे बोलों में है ऐसी शक्ति, अपने ही नहीं, परायों को भी अपना कर लेती! हर भाषा को अपनी सखी-सहेली है मानती, ऐसी है हमारी अनूठी अलबेली हिंदी!   संस्कृत से निकलती है हिंदी की धारा, भारतेंदु जयशंकर ने इसे दुलारा! जहाँ निराला महादेवी ने इसको सँवारा, वहीं दिनकर और सुभद्रा ने इसको निखारा! ऐसे महापुरुषों की प्यारी है हिंदी, हिन्द का गुरूर है हिंदी!   विडम्बना है कि हिंदी को राष्ट्र धरोहर मानते हैं, फिर भी लोग हिंदी बोलने में सकुचाते हैं! वैदिक काल से चली आ रही भाषा को छोड़, विदेशी भाषा बोलने में अपनी झूठी शान मानते हैं! पर आज तो विदेशी भी ‘हरे रामा-हरे कृष्णा’ बोलकर, हिंदी संस्कृति के रंगों में रंग जाते हैं!   तत्सम, तद्भव, देशी-विदेशी सभी रंगों को अपनाती, जैसे भी बोलो यह मधुर ध्वनी सी हर के मन में बस जाती। जहाँ कुछ भाषाओं के

'दयालुता' का धर्म निभाएं, 'भगवान के दोस्त' बन जायें !!

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एक बच्चा भरी दोपहरी में फूल बेच रहा था। लोग फूल के लिए मोल भाव कर रहे थे। तभी उनमें से एक आदमी की नजर उस बच्चे के पैरों पर गई, उसने देखा इतनी तेज धूप में वह नंगे पैर खड़ा था। उसके पैर जल रहे थे वह अपने पैरों को कभी एक के ऊपर एक रख.. इधर उधर कर पैरों को जलने से बचाने का असफल प्रयास कर रहा था। यह देख उसे बहुत दुख हुआ और वह तभी पास ही की एक जूते की दुकान में जाकर  बच्चे के लिए जूते लेकर आया। बच्चे के पास आकर उसे जूते देते हुए उसने कहा, "बच्चे! यह जूते पहन लो! तुम्हारे पैर नहीं जलेंगे!" जूते देखकर बच्चे की आँखों में एक चमक आ गयी और उसने जूते लेकर फटाफट पहन लिये। वह जूतों की तरफ़ ऐसे देख रहा था जैसे उसे कोई अनमोल खजाना मिल गया हो। वह उस आदमी का हाथ पकड़कर बोला, "आप भगवान हो ना!" वह आदमी उसकी तरफ आश्चर्य से देखते हुए बोला, " नहीं बेटा, मैं भगवान नहीं हूँ।" फिर उस लड़के ने कुछ सोचते हुए कहा, "फिर तो जरूर आप भगवान के दोस्त होंगे क्योंकि मैंने कल रात ही भगवान से प्रार्थना की थी कि भगवान जी मेरे पैर बहुत जलते हैं, मुझे जूते ले करके दो। उन्होंने जूते भेज दिए! अग

उम्मीद ना टूटने दो, हौसला ना हारो !!

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राकेश रेगिस्तान में भटक गया। वहाँ से निकलने का रास्ता ढूँढ़ते –ढूँढ़ते उसके पास खाने-पीने की जो चीजें थी सब खत्म हो गयीं। वह प्यास से इतना व्याकुल हो गया कि उसे लगने लगा यदि कुछ देर में उसे पानी नहीं मिला तो उसके प्राण निकल जायेंगे। तभी उसे कुछ दूरी पर एक झोपड़ी दिखाई दी, उसे आशा की किरण नजर आई पर उसे विश्वास नहीं हुआ क्योंकि वह इससे पहले भी मृगतृष्णा और भ्रम के कारण धोखा खा चुका था। पर उसके पास उसपर विश्वास करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। वह झोंपडी की तरफ बढ़ने लगा। सचमुच वहाँ एक झोंपड़ी थी। उसने देखा वह झोपड़ी तो विरान है फिर भी पानी की उम्मीद में वह झोंपड़ी के अन्दर घुसा। वहाँ एक हैण्ड पम्प को देखकर वह पानी पाने के लिए हैण्ड पम्प को तेजी से चलाने लगा। लेकिन उसकी सारी मेहनत बेकार गई क्योंकि हैण्ड पम्प तो कब का सूख चुका था। अब उसे लगने लगा कि अब उसे मरने से कोई नहीं बचा सकता। वह निढाल होकर वहीं गिर पड़ा। तभी उसे झोंपड़ी की छत से बंधी पानी से भरी एक बोतल दिखाई दी। वह अपनी पूरी ताकत लगाकर उठा और बोतल लेकर पानी पीने ही वाला था कि... उसे बोतल से चिपका एक कागज़ दिखाई दिया जिसपर लिखा था

देती है मंजिल का पता काँटों भरी मुश्किल डगर

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रामसहाय एक सफल व्यापारी था। उसे व्यापार में इतना घाटा हो गया कि उसका व्यापार डूब गया। वह व्यापार को बचाने की हर संभव कोशिश करके पूरी तरह निराश हो चुका था। उसे अपने जीवन में सब कुछ समाप्त लगने लगा। एक दिन हताश निराश होकर वह मंदिर में बैठा ईश्वर से अपनी व्यथा बाँटते हुए कह रहा था, “मैं हार चुका हूँ, मेरा सब कुछ खत्म हो चुका है। मैं क्या करूँ! हे ईश्वर मेरी कुछ तो मदद कर”  मंदिर के पुजारी ने उसके आंसू देखे और उसके पास आकर उसकी समस्या जानने की कोशिश की। उसकी बात सुनकर, पुजारी ने कहा, “ मैं तुम्हे एक कहानी सुनाता हूँ! ईश्वर ने इस धरती की रचना की और उस पर घास और बांस के बीजों को एक साथ लगाया और दोनों को समय पर पानी, प्रकाश सब कुछ देकर देखभाल की। घास बहुत जल्दी बड़ी होने लगी और उसने धरती को हरा भरा कर दिया लेकिन बांस का बीज बड़ा नहीं हुआ। एक वर्ष बाद घास और घनी हो गई। झाड़ियों जैसी दिखने लगी पर बांस के बीज में कोई वृद्धि नहीं हुई। लेकिन ईश्वर ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी और धैर्य से प्रतीक्षा की। पाँच साल बाद, बांस के बीज से एक छोटा सा पौधा अंकुरित हुआ...घास की तुलना में बहुत छोटा और कमजोर भी

सिर्फ ‘विश्वास’ यानी belief ही नहीं, ‘विश्वास’ यानी trust करना भी सीखें...

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रामू नट अपना खेल दिखाकर पैसा कमाता था। एक दिन वह एक तार पर लंबा सा बांस लेकर चल रहा था और उसने अपने कन्धे पर अपने बेटे को बैठा रखा था। उसके इस खेल को देखने के लिए काफी लोगों की भीड़ लगी थी। वहाँ उपस्थित लोग सांस रोककर खेल देख रहे थे। रामू सधे कदमों से , तेज हवा से जूझते हुए अपनी और अपने बेटे की ज़िंदगी दाँव पर लगा, दूरी पूरी कर ली। यह देख भीड़ आह्लाद से उछल पड़ी और तालियाँ , सीटियाँ बजने लगीं । उसके नीचे आते ही लोग उसका फोटो खींचने लगे , उसके साथ सेल्फी लेने लगे। उससे हाथ मिलाने लगे। तब उसने माइक लेकर भीड़ को सम्बेधित करते हुए बोला , " क्या आपको विश्वास है कि मैं दोबारा यह कर सकता हूँ?" भीड़ चिल्लाई, “हाँ हाँ , तुम कर सकते हो।“ उसने दोबारा पूछा , “क्या आपको विश्वास है।“ पुनः लोगों ने कहा, “हाँ पूरा विश्वास है , हम तो शर्त भी लगा सकते हैं कि तुम सफलता पूर्वक इसे दोहरा सकते हो।“ रामू ने कहा , “ठीक है आपको मुझपर पूरा विश्वास है तो,कोई मुझे अपना बच्चा दे दे , मैं उसे अपने कंधे पर बैठा कर रस्सी पर चलूँगा।“ उसकी बात सुनकर वहाँ चुप्पी छा गई। यह नजारा देख रामू ने हँसते हुए कहा , “डर

नेकी कर कुएं में डाल...

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लखनसिंह के पास एक नाव थी जिसका जगह -जगह से पेंट हट गया था…अधिक पुरानी न होने पर भी देखने में काफी पुरानी लगती थी। उसके घरवाले कई बार नाव पर रंग करवाने के लिए कह चुके थे। लखनसिंह ने आखिर एक दिन एक पेंट करने वाले को बुलाया और वह पेंटर से नाव पर लाल रंग का पेंट करने को कहकर बाहर काम से चला गया। पेंटर का काम खत्म हो गया पर लखन सिंह नहीं आया तो वह बिना पैसे लिए ही चला गया। अगले दिन नाव का मालिक लखनसिंह उस पेंटर के घर गया और उसे एक बड़ी धन राशि दी। इतने अधिक धनराशि देखकर पेंटर को कुछ समझ नहीं आया। उसने लखनसिंह से कहा, “ये किस लिए, मेरे पेंट करने के मेहनताने से तो यह बहुत अधिक है।“ तब लखनसिंह ने कहा, “यह तुम्हारे पेंट करने का नहीं बल्कि ये उस नाव में जो "छेद" था, उसको रिपेयर करने का पैसा है जो तुमने मेरे कहे बिना सही कर दिया था। आज तुम्हारी समझदारी के कारण एक अनहोनी होते – होते बच गई। नाव का पेंट सुख जाने के बाद मेरे दोनों बच्चे उस नाव को लेकर नौकायन के लिए निकल गए । मैं उस वक़्त घर पर नहीं था, लेकिन जब लौट कर आया और पत्नी से ने बताया कि बच्चे नाव को लेकर नौकायन पर निकल गए हैं ! मु

मन का भाव है श्रद्धा के फूल....!

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एक सिद्ध महात्मा कुछ दिन विश्राम करने हेतु  एक गाँव में रुके। महात्मा के दर्शन करने गाँव के लोग कुछ न कुछ भेंट लेकर उनके पास जाने लगे। उसी गाँव में माधव नाम का एक गरीब किसान रहता था। जब उसने महात्माजी के आगमन के बारे में सुना तो वह सोचने लगा कि आज तो कोई काम नहीं मिलेगा। फिर उसकी नजर घर के बाहर तालाब में बेमौसम खिले एक कमल पर गई तो उसने सोचा चलो आज इस फूल को बेचकर ही गुजारा कर लेते हैं। वह तालाब के अंदर घुसकर कमल तोड़ लाया और केले के पत्ते का दोना बनाकर उसमें कमल का फूल रख दिया। कमल पर पड़ी पानी की कुछ बूंदों से वह और भी   सुंदर दिखाई दे रहा था। इतनी देर में नगर-सेठ आया। उसने कहा '' भई , फूल बहुत अच्छा है , यह फूल हमें दे दो!   हम इसके दस चांदी के सिक्के दे सकते हैं।"  वह फूल का मूल्य सुनकर सोच मे पड़ गया  ... कि एक-दो आने का फूल! इसके लिए दस चांदी के सिक्के... इतना कीमती है यह फूल। नगर सेठ ने  माधव को सोच मे पड़े देख कर कहा कि अगर पैसे कम हों , तो ज्यादा ले लो। मैं महात्मा के चरणों में यह फूल भेंट करना चाहता हूँ इसलिए इसकी कीमत लगा रहा हूँ।   उसी समय वहाँ से महात्मा क

दुनिया में सिकंदर कोई नहीं, वक्त ही सिकंदर है..

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सिकंदर के नाम से सभी परिचित हैं। उसने ऐसे पानी के बारे में सुन रखा था जिसे पीने के बाद मृत्यु नहीं आती और इंसान अमर हो जाते हैं। काफी दिनों की तलाश के बाद सिकंदर को उस जगह का पता चल ही जाता है जहाँ उसे अमरत्व प्रदान करने वाले जल की प्राप्ति हो सकती है। वह वहाँ जाता है और उसके सामने ही अमृत जल बह रहा होता है... वह अपनी अंजलि में अमृत को लेकर पीने ही वाला होता है कि तभी उस गुफा के अन्दर से एक बूढे व्यक्ति की आवाज आती है,”रुक जा, इसे पीने की भूल मत करना...!’ सिकंदर आवाज सुनकर रूक जाता है। उसने गुफा के अंदर बूढ़े को देखकर चिल्लाकर पूछा, ‘तू मुझे रोकने वाला कौन है...?’ बूढ़े व्यक्ति ने उत्तर देते हुए कहा, “मैं भी तुम्हारी तरह अमर होना चाहता था। मैंने भी इस गुफा की खोज की और यह अमृत पी लिया। मेरी हालत देखो..दिखाई नहीं देता, पैर गल गए हैं चल नहीं सकता, शरीर कमजोर हो गया है.... अब मैं मरना चाहता हूँ... अब मैं मर नहीं सकता! देखो... परेशान होकर मैं चिल्ला रहा हूँ...चीख रहा हूँ...कि कोई मुझे मार डाले, लेकिन मुझे मारा भी नहीं जा सकता ! अब मैं हर पल ईश्वर से मुझे मौत देने की प्रार्थना कर रहा

ईश्वर पर विश्वास रखें...ऊपरवाला सब देख रहा है!

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रामानन्द वैद्य बहुत ही संतुष्ट सरल व्यक्ति थे और उनका ईश्वर पर अटूट विश्वास था।  वह अपने परिवार के साथ अपने पैतृक मकान में रहते थे। वे प्रतिदिन दवाखाने जाने से पहले अपनी पत्नी से उस दिन के जरूरी समान की पर्ची लना नहीं भूलते। फिर वैद्यजी दवाखाना खोलकर पहले भगवान का नाम लेते फिर पत्नी की समान की पर्ची खोलते और उसमें लिखे सामान के भाव देखते और मन ही मन हिसाब करते की मुझे कितने पैसों की जरूरत होगी। फिर परमात्मा से कहते, “हे भगवान ! मैं केवल तेरे ही आदेश के अनुसार यहाँ दुनियादारी के चक्कर में आ बैठा हूँ।“ और अपने काम में लग जाते.. यह नियम वर्षों से यूँ ही चल रहा था। वैद्यजी कभी अपने मुँह से किसी रोगी से फीस नहीं माँगते थे। कोई देता था कोई नहीं भी देता था पर जैसे ही उस दिन के आवश्यक सामान खरीदने के लिए पैसे पूरे हो जाते, उसके बाद वैद्य जी किसी से भी दवा के पैसे नहीं लेते थे। एक दिन वैद्यजी ने अपने नियम के अनुसार दवाखाना खोलकर पहले परमात्मा का स्मरण करके आवश्यक सामान वाली पर्ची खोली तो वह पर्ची को एकटक देखते ही रह गए। आटे-दाल-चावल आदि के बाद पत्नी ने लिखा था, "बेटी का विवाह 20 तारीख़ को

माता-पिता ईश्वर की वो सौगात हैं, जो हमारे जीवन की अमृतधार है!

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रामप्रसाद बहुत ही सरल स्वभाव के मिलनसार व्यक्ति थे। उन्होंने अपने बेटे शाश्वत को अपनी पत्नी के देहान्त के बाद अकेले ही पाला था। तुम्हारी अभी उम्र ही क्या है, और शाश्वत को माँ मिल जायेगी...आदि कहकर लोग रामप्रसाद को दूसरा विवाह करने के लिये समझाते पर वह हमेशा यह कहकर टाल जाते की शाश्वत के रूप में मेरे पास पत्नी की निशानी है जो मेरे लिए काफी है। समय बीतता गया शाश्वत पिता के साथ काम करने लगा...धीरे-धीरे रामप्रसाद ने सारा कारोबार बेटे को सौंप दिया और स्वयं मन के अनुसार कभी ऑफिस आते कभी दोस्तों के साथ समय व्यतीत करते। शाश्वत बहुत ही जिम्मेदार व समझदार था! उसने जल्दी ही सारा कारोबार अच्छी तरह संभाल लिया। उसके लिए विवाह के लिए प्रस्ताव आने लगे। रामप्रसाद ने बेटे की पसंद से उसका विवाह स्वाति से बहुत धूमधाम से किया और स्वाति को बहू बनाकर घर ले आये...उसे घर की जिम्मेदारी सौंपकर अब वह घर और व्यापार की तरफ से निश्चिंत हो गये। बेटे के साथ ही बहू स्वाति भी उनकी इच्छाओं व जरूरतों का ध्यान रखती...यह देखकर शाश्वत भी पिता की तरफ से निश्चिंत हो गया। कुछ समय तक सब कुछ ठीक चल रहा था पर कुछ दिन से शाश्वत को

दूसरों की खुशी का कारण बनिये....!

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सविता के पास किसी चीज की कमी नहीं थी पर कुछ दिन से उसका मन किसी चीज में नहीं लग रहा था, उसे ऐसा लगता की उसके जीवन का कोई अर्थ नहीं है। कोई चीज उसे खुशी नहीं दे पाती। अपने मित्रों से मिलना घूमना फिरना भी उसे अच्छा नहीं लगता। एक दिन वह इस बारे में अपनी मित्र स्नेहा को बताती है, तो स्नेह उसे मनोचिकित्सक की मदद लेने की सलाह देती है। सविता कहती है मुझे कोई मानसिक बीमारी थोड़ी है जो मैं मनोचिकित्सक के पास जाऊँ । स्नेहा उसे समझाते हुए कहती है कि मनोचिकित्सक के पास जाने का मतलब यह नहीं होता कि हमें कोई मानसिक बीमारी ही हो, कई बार किसी से बात करना ही काफी होता है और चूँकि मनोचिकित्सक मन की बात समझने का ही काम करते हैं एक बार मिल लेने में हर्ज़ ही क्या है!? स्नेहा की सलाह मानकर सविता अगले दिन डॉ कुमार के पास जाती है। सविता अपनी मनःस्थिति के बारे में,कि वह कैसा महसूस करती है आदि विस्तार से डॉ. कुमार को बताती है। उसकी बात सुनकर डॉ. कुमार एक महिला को सविता से मिलाने के लिए फोन करके बुलाते हैं। एक अधेड़ उम्र की महिला मुस्कराते हुए आती है और डॉ कुमार सविता से उसके जीवन की कहानी को ध्यान से सुनने को कह

जब मंदिर में ईश्वर जोड़े में अच्छा लगता है तो मां बाप साथ में बुरे क्यो लगते हैं!

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रमाकांत ने सेवानिवृत होने से पहले ही अपना घर बना लिया था। बेटे आकाश की शादी हो गई थी और बेटा-बहू व एक पोता साथ ही रहते थे। उन्होंने घर के बाहर पत्नी की इच्छानुसार कुछ कच्ची जगह छोड़ दी थी और झूला भी लगवा दिया था जिसमें विमला अपने बागवानी के शौक को पूरा करती थी। उसे यह जगह बहुत पसंद थी...वह पति से अकसर वहाँ आकर उसके साथ समय बिताने को कहती पर रमाकांत काम की व्यस्तता के कारण कभी ऐसा नहीं कर पाये थे। पर सेवानिवृति के बाद पति- पत्नी एक दूसरे के साथ अपना अधिक समय वहीं पेड़- पौधों के बीच गुजारते थे। घर में किसी तरह की रोक टोक न होने पर भी बहू अनामिका को सास-ससुर के घर में रहने से उलझन सी होती थी। उसे घर का काम ज्यादा लगता था। अब उसे सास-ससुर का एक साथ समय बिताना भी अखरने लगा क्योंकि सारा दिन काम में लगी रहने वाली विमला अब घर के काम के साथ पति को भी समय देने लगी थी। अनामिका आकाश को भी उसके माता- पिता को लेकर ताने मारती रहती, बार- बार कहती, “दोनों इस उम्र में ऐसे एक दूसरे के साथ सारा दिन बाहर बैठे रहते हैं,.... कोई क्या कहेगा ..... थोड़ी भी परवाह नहीं है।“ विमला को बहू का व्यवहार कुछ बदला- बद

जब दुनिया यह कहे ‘हार मान लो’, एक बार फिर प्रयास करो..!

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रीमा, शशि और नेहा बचपन के दोस्त थे। नेहा को पेंटिग करने का शौक था और उसने पेटिंग का कोर्स भी किया था। जब भी वह कोई नई पेंटिग बनाती तो अपने दोस्तों को दिखाकर पूछती कैसी है देखकर बताओ इसमें कोई कमी तो नहीं है। वे हमेशा उससे यही कहते कि अच्छी है लेकिन हीरे की परख जौहरी ही जानता है...तू अपनी पेंटिग की एग्जिबिशन क्यों नहीं लगाती, अपने हुनर को लोगों के सामने ला, वहाँ लोगों के द्वारा मिलने वाली प्रतिक्रया से तेरी कला का सही आंकलन हो जायेगा। बार बार कहने पर नेहा ने अपने घर पर बात की और कला प्रदर्शनी की तैयारी करने लगी। दोस्तों ने भी उसकी प्रदर्शनी की तैयारी और प्रचार-प्रसार में मदद की। आखिर प्रदर्शनी का दिन भी आ गया। उस दिन नेहा खुश होने के साथ-साथ लोगों के रेस्पॉन्स को जानने के लिए उत्सुक थी। प्रदर्शनी के समाप्त होने के बाद शाम को जब फीडबैक देखने शुरू किये तो कोई भी सकारात्मक प्रतिक्रिया न पाकर नेहा निराश होकर बोली पसन्द नहीं आया यह तो लिखा है पर क्या पसंद नहीं आया, या क्या होना चाहिए था यह किसी ने नहीं लिखा। मुझे कैसे पता चलेगा मुझे क्या सुधार करना हैं मेरी तो हर पेंटिग मेरे लिए तो परफेक्ट

भूखे पेट भजन न होये गोपाला !!!

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सोनम की शादी को कुछ ही दिन हुये थे। वह रोज़ खाने पर अपने पति संजय का इंतज़ार करती और उसके आने तक खुद भी नहीं खाती और उसके आने के बाद भी या तो उसके साथ या उसके बाद ही खाती। संजय उससे मना भी करता कि ऐसा करने की क्या ज़रुरत है तो वह बस यह कह देती कि उसने अपने घर पर भी ऐसा ही देखा है और ऐसा करने में उसे परेशानी नहीं। संजय यह सुनकर चुप हो जाता। कुछ दिन तक वह भी खाने के समय जल्द से जल्द आने की कोशिश करता लेकिन काम बढने के कारण अब संजय को खाना खाने आने में देर हो जाती जिस कारण सोनम भी उसके इंतजार में भूखी बैठी रहती। सोनम को भूख बर्दाश्त नहीं थी। वह बार-बार संजय को फोन करती। और उसके फ़ोन ना उठाने पर या घर देरी से आने पर रोज़ ही दोनों की बीच कहासुनी हो जाती। सोनम की सास सीमा यह सब कई दिन से देख रही थी। एक दिन वह सोनम से बोली बेटा, संजय को काम में देर हो जाती है.. तुम खाना खा लो! तो सोनम बोली माँ, दो वक्त की रोटी कमाने के लिए इतना काम करते हैं तो वक्त पर खाना खाना भी जरूरी है न। और उन्हें पता है कि मैं उनको खाना खिलाये बिना खाना नहीं खाती हूँ तो थोडा समय निकाल नहीं सकते क्या....। सीमा ने उसका हाथ पकड

किसी की तुलना किसी न करें, क्योंकि हर फल का स्वाद अलग होता है!

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शकुन्तला के तीन बेटे थे। बड़ा बेटा संभव बैंगलौर में नौकरी करता था और बाकी दोनों अपने पिता के साथ बिजनेस में सहयोग करते थे। तीनों बेटों की शादी हो चुकी थी और शकुन्तला का भरापूरा खुशहाल परिवार था। शकुन्तला को अपनी तीनो बहूओं में से सबसे बड़ी बहू प्रेमा से अधिक लगाव था। प्रेमा एक कुशल और समझदार गृहिणी थी। परिवार को प्रेम से कैसे बंधे रखा जाता है वह बखूबी समझती थी। बच्चों के स्कूल की छुट्टी होने पर हमेशा की तरह प्रेमा अपने ससुराल आई हुई थी। एक दिन प्रेमा अपनी सास के साथ बैठी गेहूं साफ कर रही थी कि अचानक ही शकुन्तला बोल उठी, “देख ना बड़ी! तू तो घर के काम के साथ साथ सिलाई बुनाई भी कर लेती है और अपनी देवरानियों को देख...इन दोनों से तो तीन टाइम का खाना बन जाये वही काफी है।“ यह सुनकर प्रेमा अपनी सास से कहती है, “ मांजी! बैंगलोर में संभव व बच्चों के जाने के बाद मुझे खाली समय मिल जाता है इसलिए यह सब कर लेती हूँ! पर इन दोनों को पति बच्चों के साथ आपका व आने जाने वालों का भी ध्यान रखना पड़ता है...इनके पास अपने लिए भी समय नहीं होता है...” प्रेमा इससे पहले कुछ और बोलती, शकुंतला तुनकती हुए कहती है,

मजबूती से जड़ से जुड़े रहें अपने परिवार से....!!

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अंकित और आशीष दो भाई थे। अंकित और आशीष की उम्र में दस साल का अंतर था। घर की आर्थिक स्थिति ज्यादा अच्छी ना होने के कारण बचपन से ही अंकित ने घर की जिम्मेदारी अपने ऊपर ओड़ ली थी। अपने जीवन को देखकर अंकित ने आशीष के पालन पोषण की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। समय का चक्र घुमा और अंकित के माँ-बाप का अचानक एक दुर्घटना में देहांत हो गया। घर और आशीष की पूरी जिम्मेदारी अब अंकित पर थी। आशीष की देखभाल ठीक से हो सके इसलिए अंकित ने जल्द ही विवाह भी कर लिया। उसके वेतन का काफी हिस्सा घर के खर्चे और आशीष की पढ़ई में खर्च हो जाता इसलिए उसने अपने परिवार को आगे बढ़ाने के विषय में कभी विचार ही नहीं किया। पढ़ाई पूरी होते ही आशीष की नौकरी एक अच्छी कम्पनी में लग गयी और अंकित ने उसकी शादी धूमधाम से कर दी। समय अपनी चाल से चलता रहा और देखते ही देखते अंकित और आशीष का परिवार भरापूरा हो गया। परिवार बढ़ने के कारण घर छोटा पड़ने लगा। आशीष ने भाई से सलाह करके एक दूसरा किराये का मकान ले लिया और वह उसमें रहने चला गया। अंकित की बेटी अब विवाह योग्य हो गई थी। वह उसके विवाह के लिए पैसों के इंतज़ाम के बारे में अपनी पत्नी से बात कर

सब कुछ पा लेने में क्या ख़ाक मजा आता है, मजा तो तब है जब कमियों में भी जीना आये!!

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सुनन्दा शाम को अपनी बालकोनी में खड़े होकर चाय पीती थी। उसकी बालकनी से उसकी सोसाइटी का पार्क दिखता था। उसमें बच्चों को खेलते देख समय का पता ही नहीं चलता। अभी कुछ दिनों से उस पार्क में पास ही बन रही बिल्डिंग में काम करने वाले मजदूरों के बच्चें भी खेलने आने लगे थे। वो सब मिलकर रेलगाड़ी का खेल खेलते रहते। उनमें एक बच्चा इंजन बनता और बाकी बच्चे डिब्बे बनते। उन सबके अलावा एक छोटा बच्चा अपने हाथ में एक कपड़ा लिये गार्ड बनता और कपड़ा हिलाकर सिगनल देता और छुक छुक की आवाज के साथ बच्चों की रेल गाड़ी आगे बढ़ जाती। इस खेल को अपनी बालकनी से देखते हुए आज सुनन्दा को शायद 10 दिन हो गये। बच्चों की बेफिक्री उसे बड़ी अच्छी लगती। एक दिन अचानक उसका ध्यान इस बात पर गया कि इंजन और गाड़ी के डिब्बे वाले बच्चे तो बदल जाते थे पर गार्ड बनने वाला बच्चा वही रहता। खुद से बात करते हुए बोली, “क्या पता बच्चे को गार्ड बनना ही पसंद हो!” एक दिन शाम को सुनन्दा कहीं से लौट रही थी। तभी उसकी नज़र उन बच्चों पर पड़ी, उससे रुका नहीं गया और उस गार्ड बने बच्चे को बुलाकर उसका नाम पूछा। बच्चे ने जवाब देते हुए कहा, “छोटू।“ सुनन्दा ने उससे

जो बच्चे कहते हम होंगे बुढा़पे का सहारा ! कैसे कह देते हैं, करना होगा अब बंटवारा तुम्हारा !!

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रामकिशन सरकारी स्कूल में टीचर थे। वे अपनी पत्नी सरस्वती और तीन बेटों के साथ बहुत खुश थे। उन्होंने अपने बेटों के नाम भी राम , लक्ष्मण और भरत रखे थे। रामकिशनजी के बेटे बहुत ही होनहार थे। जब कोई रामकिशन जी से उनके बेटों की तारीफ करता तो उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता। देखते ही देखते बड़े बेटे राम ने इंटरमीडियट पास कर ली और उसकी इच्छानुसार उसका दाखिला बी . टैक में करा दिया गया । दो साल बाद दूसरा बेटा लक्ष्मण भी बीबीए करने के लिए बाहर चला गया। जब कभी उनकी पत्नी खर्च के बारे में चिंता करती , तो वो बड़े ही संयम से कहते, “ तुम चिंता न करो ईश्वर की कृपा रही तो सब ठीक हो जायेगा। मैं चाहता हूँ की मेरे बच्चे जो करना चाहें मैं करा सकूँ ताकि उन्हें या मुझे यह जीवन भर अफसोस न रहे की मैं उनकी   इच्छा पूरी न कर सका।   तुम तो अपने लिए बहू लाने व पोते- पोतियों के साथ खेलने के बारे में सोचो!” सरस्वती हँसने लगती और माहौल खुशनुमा हो जाता। तीनो बेटों की पढाई पूरी हु

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