आज का युग प्रतिस्पर्धा का युग है। मैगजींस, सोशल मीडिया,क्लब इत्यादि, जहाँ नजर घुमाओ वहीं कोई न कोई प्रतियोगिता चल रही होती है । कुछ समय पहले ऐसी ही एक प्रतियोगिता का हिस्सा बनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। वहाँ मंच पर बैठे निर्णायक मंडल के सदस्य हर प्रतियोगी से एक प्रश्न पूछ रहे थे ताकि वे उनके विचारों द्वारा प्रतिभागियों के व्यक्तित्व को परख सकें। पूछे जाने वाले प्रश्नों में से एक प्रश्न ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। वह प्रश्न था-
ऐसी कौन-सी आदत या बात है जो महिलाओं को पुरूषों से सीखनी चाहिए?
इस प्रश्न के कई उत्तर सामने आये। किसी ने महिलाओं की तथाकथित बोलने की आदत पर कटाक्ष करते हुए कहा कि उन्हें पुरूषों से चुप रहना सीखना चाहिए। इसके अनेक फायदे हैं। एक ने कहा कि महिलाओं को पुरूषों से अपनी भावनाओं पर कंट्रोल करने की कला सीखनी चाहिए। ऐसे ही अनेक विचार सामने आये, सभी को मैं ध्यान से सुन रही थी तभी किसी ने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं जो महिलाएँ पुरूषों से सीखें। एक तरह से उनका मत था कि महिलाएँ हर कार्य में दक्ष हैं यह सुनकर मुझे लगा कि इस सृष्टि में ऐसा कोई नहीं जो सर्वगुण सम्पन्न हो। पर दूसरे ही पल वही प्रश्न कि तो फिर क्या सीख सकती हैं महिलाएँ पुरूषों से?
एक महत्तवपूर्ण बात जो मुझे लगती है महिलाओं को सीखनी चाहिए वो है बस थोड़ा स्वार्थी होना। इस बात का अर्थ यह कतई नहीं कि पुरूष स्वार्थी होते हैं या केवल अपने बारे में ही सोचते हैं। बस यह एक छोटी -सी पर अहम् बात है कि अपनी व्यस्त जीवनशैली में भी वे स्वयं के लिए, अपने सपनों के लिए, अपने शौक के लिए वक्त निकाल लेते हैं। यहाँ महिलाएं पुरूषों से पीछे रह जाती हैं। उदाहरण के लिए आपके पति के कॉलेज के कितने ही मित्रों को आप जानते होंगे और वे घर पर भी आते होंगे पर क्या आपकी किसी कॉलेज की सहेली को पतिदेव जानते हैं यदि हां तो संख्या बहुत कम होगी। इसका कारण पुरूष थोड़ा समय अपने दोस्तों के लिए निकाल लेते हैं परंतु महिलाएं अपने परिवार , रिश्तेदारों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन, परिवार के हर सदस्य की इच्छाओं को पूरा करते हुए अपने शौक, इच्छाओं को पीछे करती जाती हैं। कई बार तो वे अपने को भुला ही देती हैं और जो महिलाएं नौकरी करती हैं उनके लिए खुद को हर क्षेत्र में सफल करने का इतना दवाब बन जाता है कि वे खुद को कहीं पीछे छोड़ आती हैं। अतः स्वार्थी होने से मेरा अर्थ मात्र इतना है कि अपने महत्तवपूर्ण समय में से थोड़ा समय स्वयं को भी दें,आपके शौक भी उतने ही आवश्यक हैं जितने आपके कर्तव्य।
अंत में बस इतना ही कहना चाहूँगी की महिलाओं को अपने सपनों को भी महत्तव देना चाहिए जिससे उम्र के आखिरी पड़ाव पर 'काश ऐसा होता' या 'मैं उस समय ऐसा कर लेती तो..' जैसी बातों का सामना न करना पड़े।
जब उन्हें इस बात का अहसास होता है, तो बहुत देर हो चुकी होती है एवं अपनी इच्छाओं को पूरा करने की न तो शक्ति बचती है न परिस्थिति क्योंकि 'समय हाथ से निकल जाने के बाद केवल पश्चाताप ही हाथ लगता है।'
हम वो सब कर सकते हैं ,
जो हम सोच सकते हैं
और हम वो सब सोच सकते हैं ,
जो आज तक नहीं सोचा।
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