हिन्दी - भाषा नहीं एक भावना

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भारत की प्यारी भाषा है हिन्दी, जग में सबसे न्यारी भाषा है हिंदी! जन-जन की भाषा है हिंदी, हिन्द को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा है हिंदी! कालजयी जीवनरेखा है हिंदी, जीवन की परिभाषा है हिंदी!  हिंदी की बुलंद ललकार से थी हमने आज़ादी पाई, हर देशवासी की थी इसमें भावना समाई! इसके मीठे बोलों में है ऐसी शक्ति, अपने ही नहीं, परायों को भी अपना कर लेती! हर भाषा को अपनी सखी-सहेली है मानती, ऐसी है हमारी अनूठी अलबेली हिंदी!   संस्कृत से निकलती है हिंदी की धारा, भारतेंदु जयशंकर ने इसे दुलारा! जहाँ निराला महादेवी ने इसको सँवारा, वहीं दिनकर और सुभद्रा ने इसको निखारा! ऐसे महापुरुषों की प्यारी है हिंदी, हिन्द का गुरूर है हिंदी!   विडम्बना है कि हिंदी को राष्ट्र धरोहर मानते हैं, फिर भी लोग हिंदी बोलने में सकुचाते हैं! वैदिक काल से चली आ रही भाषा को छोड़, विदेशी भाषा बोलने में अपनी झूठी शान मानते हैं! पर आज तो विदेशी भी ‘हरे रामा-हरे कृष्णा’ बोलकर, हिंदी संस्कृति के रंगों में रंग जाते हैं!   तत्सम, तद्भव, देशी-विदेशी सभी रंगों को अपनाती, जैसे भी बोलो यह मधुर ध्वनी सी हर के मन में बस जाती। जहाँ कुछ भाषाओं के

इंसान की खोपड़ी

 एक महल के द्वार पर बहुत भीड लगी हुई थी. भीड बढती ही जा रही थी. और दोपहर से भीड बढनी शुरू हुई थी, अब शाम होने आ गई. सारा गांव ही करीब-करीब उस द्वार पर इकट्ठा हो गया.


क्या हो गया था उस द्वार पर राजमहल के ? एक छोटी-सी घटना हो गई और घटना ऐसी बेबूझ थी कि जिसने सुना वह वहीं खडा होकर देखता रह गया. किसी की कुछ भी समझ में न आ रहा था.

एक भिखारी सुबह-सुबह आया और उसने राजा के महल के सामने अपना भिक्षापात्र फैलाया. राजा ने अपने नौकरों से कहा कुछ दे दो इसे. उस भिखारी ने कहा, एक शर्त पर लेता हूं.

यह भिक्षापात्र उसी शर्त पर कोई चीज स्वीकार करता है जब यह वचन दिया जाए कि आप मेरे भिक्षापात्र को पूरा भर देंगे, तभी मै कुछ लेता हूं.

राजा ने कहा, यह कौन-सी मुश्किल है, छोटा-सा भिक्षापात्र है, पूरा भर देंगे और अन्न से नहीं स्वर्ण अशर्फियों से भर देंगे. भिक्षुक ने कहा, और एक बार सोच लें, पीछे पछताना न पडे.


क्योंकि इस भिक्षापात्र को लेकर मैं और द्वारों पर भी गया हूं और न-मालूम कितने लोगों ने यह वचन दिया था कि वे इसे पूरा भर देंगे. लेकिन वे इसे पूरा नहीं भर पाए और बाद में उन्हें क्षमा मांगनी पडी.

राजा हंसने लगा और उसने कहा कि छोटा-सा भिक्षापात्र. उसने अपने मंत्रियों को कहा, स्वर्ण अशर्फियों से भर दो. यही घटना हो गई थी, राजा स्वर्ण अशर्फियां डालता चला गया था, भिक्षापात्र कुछ ऐसा था कि भरता ही नहीं था.

सारा गांव द्वार पर इकट्ठा हो गया था देखने. किसी को समझ में कुछ भी न पडता था कि क्या हो गया है ? राजा का खजाना चुक गया. सांझ हो गई, सूरज ढलने लगा, लेकिन भिक्षा का पात्र खाली था.

तब तो राजा भी घबडाया, गिर पडा पैरों पर उस भिक्षु के और बोला, क्या है इस पात्र में रहस्य ? क्या है जादू ? भरता क्यों नहीं ? उस भिखारी ने कहा, कोई जादू नहीं है, कोई रहस्य नहीं है, बडी सीधी-सी बात है.

एक मरघट से निकलता था, वहा पर एक आदमी की खोपडी मिल गई, उससे ही मैंने भिक्षापात्र को बना लिया. और आदमी कि खोपडी कभी भी किसी चीज से भरती नहीं है, इसलिए यह भी नहीं भरता है.

हम भी ठिक इस भिक्षु के पात्र की तरह ही है, चाहे हम कितना ही क्युं न पाले हम भी कभी भरते नहीं है. क्योंकि हम मन के सहारे जीते है.

हमारी मांगे कभी नहीं भरती चाहे हम कुछ भी कर ले फिर भी कुछ और पाने की चाह बनी रहती हैं....👣


चल मेरे श्याम की नगरी में, तेरे गम के बादल छट जायेगें।

जब छांव मिलेगी बाबा की, तेरे दुखड़े सब कट जायेगें।।

।। जय श्री श्याम।।


श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी,

हे नाथ नारायण वासुदेवा!!!

!! Զเधॆ Զเधॆ !!

‼जय श्री कृष्ण‼

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