मैंने कहीं पढ़ा था, उपहार
और प्रशंसा देवताओं तक को प्रसन्न कर देते है और इस बात से मैं सहमत भी हूँ। उपहार
प्रिय जनों के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का एक उत्तम जरिया है। परन्तु आज
के समय में उपहार देन-लेन के इस चलन ने कुछ अलग ही रूप ले लिया है.......पहले के
समय में त्योहारों की दस्तक के साथ ही घर के सभी बड़े सभी सदस्यों के लिए उपहार तय
करते थे और हमें भी इंतज़ार रहता कि इस बार त्यौहार पर हमारे खजाने में क्या नया
आने वाला है...चाहें फिर वो सभी भाई बहनों के लिए जैसे कपड़े हों या फिर एक एक
पेंसिल....उपहार की कीमत से ज्यादा तो उसके साथ यादें जुड़ जाती थी....परन्तु आज के
परिपेक्ष में इसका विपरीत देखने को मिलता है....आजकल हर कोई तोहफे की कीमत आंकता
है और उसके अनुसार देने वाले के प्रति एक धारणा बनाता है....
आज अधिकतर तोहफों के
लेन- देन का आधार प्रेम नहीं, प्रायः व्यक्ति की उपयोगिता को देखकर होता है जैसे
जिस आदमी से काम है उसके यहाँ तोहफा भेज दिया और जिसको आप से काम है या भविष्य में
पड़ सकता है उसने आपके यहाँ तोहफा भेज दिया और जिस व्यक्ति से किसी काम के अटकने
की उम्मीद नहीं उसकी तरफ देखा भी नहीं। वैसे इस लेन देन में अकसर यही होता है जो
तोहफा मुझे किसी ने दिया, उसे मैंने किसी और के यहाँ भिजवा दिया और उसने किसी और
के यहाँ यह प्रक्रिया चलती रहती है जैसे तोहफा न हुआ, कोई नोट हो गया, जो किसी एक
के हाथ से निकलकर दूसरे के हाथ में पहुँच जाता है। मजा तो जब आता है जब वह उपहार
घूम फिर कर उसी के य़हाँ पहुँच जाता है,जिसने उसे शुरूआत में भेजा था। कई बार किसी
व्यक्ति की इतनी सामर्थ्य नहीं होती की वह तोहफे का खर्च वहन कर सके ऐसे में आपका
दिया तोहफा उसके लिए परेशानी का सबब बन जाता है वह सोचने लगता है कि यदि उसने आपके
यहाँ तोहफा नहीं भेजा तो आप क्या सोचेंगे। एक बेचारगी का भाव उत्पन्न हो जाता है।
ये
त्योहार हमारे जीवन में नई उंमग, नये उत्साह का संचार करने के लिए आते हैं न कि
दिखावे व फिजूलखर्ची के लिए। तो इस दिन आपसी बैर, ईर्ष्या, मनमुटाव, के भाव को
हृदय से निकालकर दोस्ती में इजाफा करना ही सही मायने में त्योहार मनाना है, न कि
केवल महँगे-महँगे तोहफे देना।
एक बार मैंने एक गरीब
बच्चे से पूछा कि उसने दीवाली पर क्या-क्या किया, अपने घर पर दीपक जलाये, नहीं और वह
बिना कुछ बोले मेरी तरफ देखता रहा। मैंने कहा क्या तुम्हारे पास दीपक नहीं थे तब
उसने बड़ी मासूमियत से कहा-दीया तो था पर उसके पास घर नहीं था।
उसकी यह बात सुनकर मैं
सोचने लगी की हर वर्ष सभी समाचार –पत्रों, टी.वी. चैनलस् में यही पढ़ने- सुनने को
मिलता है कि पूरे देश में दीपावली बढ़ी धूम-धाम से मनाई गयी। देशवासियों का उत्साह
देखते ही बनता था इत्यादि....। सोचने वाली बात यह है कि सवा सौ करोड़ लोगों में से
कुछ करोड़ लोगों के दीपावली मनाने से क्या यह पूरा देश हो गया, नहीं। जबकि देश की
एक बड़ी आबादी ऐसी है जिसने कभी अपनी जेब से मिठाई खरीदकर नहीं खाई होगी।वे तो
दिवाली देखते हैं मना कहाँ पाते हैं।शायद उन लोगों से किसी को कोई फर्क ही नहीं
पड़ता।
कहते हैं खुशियाँ
बाँटने से बढ़ती हैँ। उन लोगों के साथ खुशियाँ बाँटों जो अंधेरे में हैं आभावपूर्ण
जीवन व्यतीत करने के लिए विवश हैं उनको अपनी खुशियों में शामिल करो उनके साथ दीपक
जलाओं, मिठाई खाओ आपकी एक छोटी-सी( मदद)
कोशिश से उनके चेहरे पर आयी मुस्कान देखकर जो सुकून मिलेगा वह आपको महँगे से महँगा
तोहफा भी नहीं दे सकता यह मैं दावे से कह सकती हूँ।
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