बचपन की बस्ती, मासूमियत भरी मस्ती!!
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बचपन की यादें जब भी आती है,
मन के बच्चे को फिर जगाती है!
बचपन के वो दिन, जिनमें भरा था खुशियों का खजाना।
कितना सुगम सलोना था, शब्दों में मुश्किल है कह पाना!
बचपन....जब लगती थी दुनिया की सारी सच्चाई झूठी,
और दादी नानी की हर कहानी लगती थी सच्ची और अनूठी!
न खबर थी कुछ सुबह की, न शाम का ठिकाना था।
चाहत चाँद को छु लेने की थी, पर दिल तितली का दिवाना था!
हर खेल में साथी थे, हर रिश्ता निभाना था
थक कर आना स्कूल से, पर खेलने भी तो जाना था!
पापा से डरना और माँ से लड़ना,
करके कोई गलती फिर उलझन में पड़ना!
छोटी-छोटी चीजों में खुशियाँ थी बड़ी-बड़ी,
हर काम में मिलती थी शाबाशियाँ घड़ी-घड़ी!
कभी पिता के कंधो का, तो कभी माँ के आँचल का सहारा था!
वो बचपन कितना सुहाना था, जिसका रोज एक नया फ़साना था!
ना कोई परेशानीयों का मेला, ना जिम्मेदारियों का था झमेला!
भोली सी शैतानियाँ, अल्हड़ सी नादानियाँ,
ना था अपने-पराए का भेद,
था तो बस एक छोटा सा सवालों का ढेर!
आज याद आ चला वो बचपन सुहाना
याद में ले चला जेसे कोई दोस्त पुराना!
वक्त के बदलते करवटों के साथ बदलता गया एहसास
पर आज भी है वो बचपन बड़ा खास!
मालूम है मुझे....बीते पल अब नहीं लौट सकते,
फिर भी कुछ सवाल हैं...जो आज भी हैं कचोटते!
क्यूँ हो गऐे हम इतने बड़े,
क्यों गंभीरता ने घेरा,
आखिर क्यों जिम्मेदारियों ने डाला डेरा!
इससे अच्छा तो वो बचपन का जमाना था
कभी बिन आँसू रोने का,
तो बात मनवाने का कभी बहाना था!
सच कहूँ तो वो दिन ही हसीन थे,
न कुछ छिपाना था और दिल में जो आये वो बताना था।
काश फिर जी पाते वो अनूठे दिन,
उस बचपन की बस्ती में, मासूमियत भरी मस्ती में!!
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