हर किसी को एक तराजू में तोलती 'जंगल' शिक्षा प्रणाली
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अभी हाल ही में संघ लोक सेवा आयोग द्वारा सालाना तौर पर आयोजित की जाने वाली भारतीय सिविल सेवा परीक्षा 2020 के अंतिम नतीजे घोषित किए गए थे। इन नतीजों के आने के पश्चात् चारों ओर इस परीक्षा में सफल होने वाले अभ्यर्थियों का लिए बधाईयों का तांता लग गया विशेष रूप से वे अभ्यर्थी मीडिया में चर्चा का विषय बने हुए हैं जिन्होंने इस परीक्षा में या टॉप किया है या उच्चतम स्थानों में कोई स्थान प्राप्त किया है।
चाहें वह प्रिंट मीडिया है या इलैक्ट्रॉनिक मीडिया या फिर सोशल मीडिया, हर ओर किसी ना किसी रूप में किसी प्रस्तुति के माध्यम से यह प्रतिबिंबित किया जाता है मानो ये सफल अभ्यर्थी कोई सुपर मानव रहे हैं और प्रत्येक अभ्यर्थी आदर्शवाद के कसीदे पढ़ते नहीं थकते कि इस सेवा में आकर वे समाज की सेवा कर सकेंगे जबकि एक कड़वा सच ये है कि इनमें से अधिकाँश अपने आगे आने वाले कैरियर में एक भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बनकर रह जाएंगे। एक प्रश्न यह भी है कि क्या इस समाज की सेवा में इंजीनियर, डॉक्टर, सीए, निजी सेवा के कर्मचारी, अन्य सरकारी सेवाओं के कर्मचारी इत्यादि अपना योगदान नहीं देते हैं। क्या कभी इस सिविल सेवा के अलावा अन्य सेवाओं में सफल अभ्यर्थियों को भी इतना महत्व दिया जाता है।
इस सेवा में सफल अभ्यर्थियों की मीडिया में आवश्यकता से अधिक कवरेज होने का एक विपरीत सामाजिक पहलू ये है कि अन्य सेवा क्षेत्रों के लोग सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि क्या राष्ट्र निर्माण के लिए सिविल सेवक होना ही एक मात्र विकल्प है जबकि सच ये है इस सेवा के अधिकारियों को गैर सामुनापातिक अधिकारों का गैर वाजिब तरीके से इस्तेमाल करने की छूट होने तथा भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाने के प्रचुर अवसरों की उपलब्धता होने के कारण इसको अधिक महत्व मिलता है।
साथ ही, एक विपरीत सामाजिक पहलू ये भी है कि इसके कारण
बच्चों और अन्य परीक्षाओं में अपने प्रयास कर रहे युवाओं के अभिभावक इतने ज्यादा
अतिरेक में प्रवाहित हो जाते हैं कि वे अपने बच्चों की क्षमताओं को कमतर कर आंकने
लगते हैं और बच्चे व युवा भी कहीं न कहीं हीनभावना से प्रभावित हुआ सा महसूस करने
लगते हैं। इस प्रवृत्ति से ग्रसित व्यवस्था और उस व्यवस्था का हिस्सा बने
अभिभावकों को परिलक्षित करती हुई एक कथा है जो कम शब्दों में सरल रूप से ही बहुत कुछ कह जाती है -
एक बार जंगल के राजा शेर ने ऐलान कर
दिया कि अब आज के बाद कोई अनपढ़ न रहेगा। हर पशु को अपना बच्चा स्कूल भेजना होगा।
राजा साहब का स्कूल पढ़ा-लिखाकर सबको प्रमाण-पत्र देगा। इस घोषणा के बाद सभी पशुओं
के बच्चे ने लगे। हाथी का बच्चा भी आया, शेर
का भी, बंदर भी आया और मछली भी, खरगोश
भी आया तो कछुआ, ऊँट और जिराफ भी।
जब पहली परीक्षा के परिणाम आए तो पता चला कि बन्दर के बच्चे को छोड़ सभी बच्चे फेल हो गये हैं! प्रिंसिपल ने बन्दर को स्टेज पर बुलाकर सम्मानित किया। बंदर ने उछल-उछल के कलाबाजियाँ दिखाकर गुलाटियाँ मार कर खुशी का इजहार किया। अन्य सभी जानवर अपमानित महसूस कर रहे थे! अध्यापकों से पूछने पर पता चला कि सभी पशुओं के बच्चे पेड़ पर चढ़ने में असफल हुए! हाथी, जिराफ यहाँ तक की मछली के अभिभावक भी अपने अपने बच्चों को उलहाना देने लगे! कईयों ने अपने बच्चों को दण्डित कर ट्यूशन दिलवाने की ठान ली!
मछली तैराकी में प्रथम आयी थी लेकिन बाकी विषयों में तो फेल ही थी। उसकी मास्टरनी बोली, "आपकी बेटी के साथ उपस्थिति की समस्या है।" मछली ने बेटी को आँखें दिखाई तो बेटी ने समझाने की कोशिश की, "माँ, मेरा दम घुटता है इस स्कूल में। मुझे साँस ही नहीं आती। मुझे नहीं पढ़ना इस स्कूल में। हमारा स्कूल तो तालाब में होना चाहिये न?" मां ने कहा, "नहीं, ये राजा का स्कूल है। मुझे तालाब वाले स्कूल में भेजकर अपनी बेइज्जती नहीं करानी। समाज में कुछ इज्जत है मेरी। तुमको इसी स्कूल में पढ़ना है। पढ़ाई पर ध्यान दिया करो।" इसी तरह हाथी, ऊँट और जिराफ भी अपने-अपने बच्चों को पीटते हुए ले जा रहे थे।
सभी प्राणी इस समस्या को लेकर जंगले में रहने वाले एक महात्मा के पास गए! महात्मा ने सबकी बातें सुनी और उनसे पूछा, "पर तुम इन्हें
पेड़ पर चढ़ाना ही क्यों चाहते हो?" सबने उनकी तरफ आश्चर्य से देखा तो महात्मा ने प्यार से कहा, " जब हर बच्चे के पास अपने हुनर है तो तुम सब उन्हें बन्दर क्यों बनाना चाहते हो! जब हाथी अपनी सूंड उठा कर पेड़ पर लगा सबसे ऊँचा फल तोड़ सकता है और जिराफ अपनी लंबी गर्दन उठाकर सबसे ऊँचे पत्ते तोड़-तोड़ कर खा सकता है तो उन्हें पेड़ पर चढ़ने की ज़रुरत ही क्या है!?" यह सुनते ही जिराफ, ऊँट, हाथी सब अपनी गर्दन लंबी करके फल पत्ते खाने लगा। महात्मा की
यह बात सुनकर सारे के सारे जानवर सकते में आ गए और उनको एहसास हो गया जिस बंदर के
पेड़ पर चढ़ जाने के कारण परीक्षा में प्रथम आ जाने के कारण वे अपने बच्चों को
दंडित कर रहे हैं वह बंदर ना तो नीचे खड़े होकर सबसे ऊंचा फल तोड़ सकता है और ना ही मछली की तरह तालाब में तैर सकता है! सभी पशुओं को समझ आ गया था कि हर किसी की अपनी योग्यता और क्षमता होती है और
वह उसी क्षमता एवं योग्यता को निखारे जाने पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकता
है।
दुर्भाग्य से आज हमारी स्कूली शिक्षा का पूरा पाठ्यक्रम और परीक्षा व्यवस्था इस कहानी से ही मिलती जुलती है जो किसी बंदर के बच्चे के लिये ही विकसित है। अगर कहानी के परिपेक्ष में कहा जाये तो अभिभावकों को समझना होगा कि अपने बच्चे की किसी एक से तुलना करके उसे और उसकी प्रतिभा को अपमानित करना गलत है। जबर्दस्ती उसके ऊपर असफल होने का ठप्पा लगाना सही नहीं! सफल होते बंदर का उत्साहवर्धन करना आवश्यक है परन्तु उसके चलते शेष बच्चों को नालायक, लापरवाह इत्यादि घोषित करना गलत है। बेशक मछली पेड़ पर न चढ़ पाये पर वो पूरा समंदर नाप लेने की क्षमता रखती है जो और किसी प्राणी में नहीं!
सच है हर अभिभावक का सपना होता है कि उसका बच्चा सर्वोत्तम करे, उच्चतम पद पर आसीन हो लेकिन उसके लिए किसी अतिरेक में प्रवाहित न होकर बच्चों की क्षमताओं व प्रतिभा की कद्र करें चाहे वह पढ़ाई, खेल, नाच, गाने, कला, अभिनय,व्यापार, खेती, बागवानी, किसी भी क्षेत्र में हो और उन्हें उसी दिशा में अच्छा करने दें।
सच्ची सफलता वो नहीं,
जो सिर्फ मैं की भावना को जगाये,
सच्ची सफलता तो वो है,
जो मानवता का धर्म सिखाये!
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