मानव के अंदर असीमित शक्तियों और क्षमताओं का भंडार है,
परन्तु वह बिना जाने इनको पाने के लिए बाहर की तरफ अंधी दौड़ कर रहा है। यह एक
वैज्ञानिक तथ्य है कि सामान्य मनुष्य अपने मस्तिष्क की मात्र 8 से 10 प्रतिशत तक
ही ऊर्जा का उपयोग कर पाता है जबकि प्राचीनकाल
में हमारे ऋषि मुनि, संत महात्मा अपने मस्तिष्क की 50 से 90 प्रतिशत तक ऊर्जा का
उपयोग कर सर्वशक्तिमान,महामानव व देवमानव के समकक्ष तक बन जाते थे। वे बल , चिंतन
एवं मनन से सब कुछ जान लेते थे और उनके लिए इस ब्रह्मांड में कुछ भी अप्राप्य
नहीं था।
ऐसे महापुरूष अधिकांश गृहस्थ होते
थे और गृहस्थाश्रम का पालन करते हुए भी वे ऐसी असीमित शक्तियों को अर्जित कर लेते थे।
तो इसके मूल में धर्माचरण,सदाचरण, समाजसेवा का भाव और विश्व कल्याण की अवधारणा
होती थी। समाज की
व्यवस्था आदर्श रूप से चलाने के लिए धर्म की व्यवस्था की गई। समाज का सर्वांगीण
विकास निर्बाध गति से चलता रहे, इसके लिए धर्मानुसार कर्म के आधार पर चार वर्णों
की व्यवस्था हुई। हर व्यक्ति के उत्थान एवं व्यवस्थित जीवन के लिए जीवन को चार
भागों में विभाजित किया गया - ब्रह्मचार्य, गृहस्थ,वानप्रस्थ तथा सन्यास। इसके साथ
ही मनुष्य को उत्कृष्ट व आदर्श जीवन जीने हेतु चार जीवन क्रम दिये गये - धर्म, अर्थ काम और मोक्ष। देखें तो यह एक
आदर्श जीवन पद्धति है जिसमें जन्म से लेकर
मृत्यु और इसके बाद मोक्ष प्राप्ति तक का मार्गदर्शन उपलब्ध था।
परन्तु प्रकृति
का नियम कहें या काल का प्रभाव, आज धर्म पर आधारित यह आदर्श जीवन पद्धति विलुप्त
हो चुकी है। सत्य सनातन परम्पराओं व व्यवस्थाओं में विकृति आ गई है। वर्ण व्यवस्था
कर्म की जगह जन्म के आधार पर हो गई है और आश्रम व्यवस्था तो कब की विलुप्त हो चुकी
है। धर्म, कर्म, सदाचरण और सदचिन्तन में हमारी आस्था कम होती जा रही है।
भौतिकता,
उपभोक्तावाद और विवेकहीनता की अंधी आँधी
में धर्म-अधर्म और उचित- अनुचित का ज्ञान होते हुए भी हम अनजान बनकर कुमार्ग व
बरबादी की राह पर चलते जा रहे हैं। चारों तरफ उत्पात, व्यभिचार और अनैतिकता का
नंगा नाच देखने के लिए मजबूर हैं। सामान्यतः सभी इस स्थिति से दुखी हैं, लेकिन
कैसी विडम्बना है कि इससे छुटकारा पाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं करना चाहता।
हमारे समाज और देश को दिशा देने वाले, सत्य-असत्य,
कर्तव्य- अकर्तव्य तथा हित और अहित का ज्ञान होते हुए भी जान बूझ कर उसे नजर अंदाज
कर रहे हैं। अपने तुच्छ स्वार्थ व हितों को साधने के लिए मौन धारण कर कुमार्ग पर
चलने में रूचि रखते हैं। उसका ही अनुसरण जनता जनार्दन कर रही है। हर प्राणी का मन
बहुत बलवान और गतिशील होता है। मन में धर्म के प्रति आस्था,सदचिन्तन और सद्व्यवहार
होने से एक तरफ जहाँ मनुष्य को देवत्व प्राप्त होता है, वहीं अनास्था, उदासीनता,
स्वार्थपरता और भौतिकवाद का अनुसरण उसे राक्षसत्व की ओर धकेलते हैं।
समाज को
सुचारू रूप से चलाने के लिए ही धर्म की संरचना की गई। लेकिन आज के परिपेक्ष में
प्रश्न यह है कि आखिर धर्म क्या है? धर्म को हम शब्दों में नहीं बाँध सकते हैं। किसी विद्वान ने धर्म की
सुव्यवस्थित, सुस्पष्ट और सर्वमान्य
परिभाषा नहीं दी है। उसकी केवल व्याख्या ही की गई है। श्री मनुमहाराज ने
धर्म के दस लक्षण बताये हैं यथा-
धृति,क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, विद्या, घी , सत्य और अक्रोध। सरल
शब्दों में कहें तो धर्म के चार चरण हैं,
सेवा, सत्य, शौच(पवित्र एवं सद्-चिंतन) तथा करूणा। हम दूसरे शब्दों में यह भी कह
सकते हैं कि छल,कपट, व्यसन, व्यभिचार, हिंसा व लोभ से मुक्ति ही धर्म है।
समाज व
राज्य के संचालन के लिए राजदंड से अधिक स्थाई रहने वाला बंधन धर्म का ही है। धर्म
के बंधन से मनुष्य सुसंस्कृत, सुसंस्कारित व दयावान बनता है, परंतु सुख की अभीप्सा
इतनी विकट होती है कि उसके सारे संस्कार, विवेक, शिक्षा व चातुर्यता को क्षण भर
में नष्ट कर देती है। मनुष्य के भीतर योग्यता व विद्वता का महत्व जरूर है, लेकिन
शील, सदाचार और नैतिकता विहीन होने पर ये सब गुण भी उसकी रक्षा नहीं कर सकते। यह
एक जग जाहिर तथ्य है कि जब कोई विद्वान और प्रभावशाली व्यक्ति अनैतिक व गलत आचरण के
कारण पथभ्रष्ट हुए तो इतिहास के पन्नो में कहीं खो गए।
परन्तु यदि
हम धर्म के चारों चरणों अर्थात् सत्य, शौच, करूणा और सेवाभाव को अपने जीवन का भाग
बना लें तो इन सभी त्रासदियों से मुक्त हो
सकते हैं। हमें छल, हिंसा, व्यसन, व्यभिचार व लोभ को छोड़ना होगा और यह केवल धर्म
के बंधन और उसके आचरण से ही संभव है। हमें धर्म की सीमाओं में रहते हुए अर्थ का
उपार्जन कर कामनाओं की सद्विवेक से पूर्ति करके अपने को लौकिक कामनाओं से धीरे-
धीरे मुक्त कर मोक्ष प्राप्त करना होगा। इसके लिए हमें चारों आश्रमों का सहारा
लेना होगा। ब्रह्मचर्य का पालन कर शक्ति व ज्ञान विद्याओं का अर्जन कर गृहस्थ
आश्रम में प्रवेश कर भौतिक उन्नति सुख सुविधाओं को बढ़ाकर उनका संतुलित विवेकपूर्ण
उपयोग व उपभोग कर वानप्रस्थाश्रम में
प्रवेश करना होगा। अपनी लौकिक कामनाओं व इच्छाओं को अत्यन्त न्यून करते हुए त्याग
व सेवाभाव के साथ लोककल्याण के कार्य करते
हुए अन्त में मोहमाया का त्यागकर अपने व समस्त जीवजगत के कल्याणार्थ संयासी
जैसा जीवन जीना होगा।
धर्म के
प्रति निष्क्रियता व निष्ठुरता यानी मरणस्वरुप ना रहकर हमें जीवन्त होकर जीना
होगा। मुर्दा जीवन सदैव अनास्था, रोग, व उदासीनता ही फैलाता है जबकि जीवन्त जीवन
हमें मानव ही नहीं बल्कि समस्त जीवों की वेदनाओं के प्रतिसंवेदनशील, उदार, विनम्र
और कर्तव्यशील बनाता है।
हम इस
संसार में किसी को भी दुख पहुँचाये बिना आन्नदपूर्वक जीवन जी सकते हैं और यह संभव केवल धर्माचरण से ही हो सकता है । धर्म ही
वो शक्ति है जिसकी मर्यादाओं में रहकर यह समाज सुसंस्कृत व सुसंस्कारित होकर धरती
पर स्वर्ग बन सकेगा। धर्म देश, काल, समय, राष्ट्र, भौगोलिक, जाति,रंग, संप्रदाय व
मान्यतों के बंधन में बंधा हुआ नहीं है। वह तो शाश्वत व सनातन है और केवल मानव का
ही नहीं समस्त जीवों का एक ही है।
अंत में, श्रीमदभगवद्गीता
में भी कहा गया है, “धर्मस्य त्रायते महतो भयात्” अर्थात् धर्म ही महान भय से पार
लगाने वाला है और इस धर्म के पांच चरण हैं – सत्य, अहिंसा, अस्तेय,ब्रह्मचर्य और
अपरिग्रह।
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