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हिन्दी - भाषा नहीं एक भावना

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भारत की प्यारी भाषा है हिन्दी, जग में सबसे न्यारी भाषा है हिंदी! जन-जन की भाषा है हिंदी, हिन्द को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा है हिंदी! कालजयी जीवनरेखा है हिंदी, जीवन की परिभाषा है हिंदी!  हिंदी की बुलंद ललकार से थी हमने आज़ादी पाई, हर देशवासी की थी इसमें भावना समाई! इसके मीठे बोलों में है ऐसी शक्ति, अपने ही नहीं, परायों को भी अपना कर लेती! हर भाषा को अपनी सखी-सहेली है मानती, ऐसी है हमारी अनूठी अलबेली हिंदी!   संस्कृत से निकलती है हिंदी की धारा, भारतेंदु जयशंकर ने इसे दुलारा! जहाँ निराला महादेवी ने इसको सँवारा, वहीं दिनकर और सुभद्रा ने इसको निखारा! ऐसे महापुरुषों की प्यारी है हिंदी, हिन्द का गुरूर है हिंदी!   विडम्बना है कि हिंदी को राष्ट्र धरोहर मानते हैं, फिर भी लोग हिंदी बोलने में सकुचाते हैं! वैदिक काल से चली आ रही भाषा को छोड़, विदेशी भाषा बोलने में अपनी झूठी शान मानते हैं! पर आज तो विदेशी भी ‘हरे रामा-हरे कृष्णा’ बोलकर, हिंदी संस्कृति के रंगों में रंग जाते हैं!   तत्सम, तद्भव, देशी-विदेशी सभी रंगों को अपनाती, जैसे भी बोलो यह मधुर ध्वनी सी हर के मन में बस जाती। ...

हिन्दी - भाषा नहीं एक भावना

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भारत की प्यारी भाषा है हिन्दी, जग में सबसे न्यारी भाषा है हिंदी! जन-जन की भाषा है हिंदी, हिन्द को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा है हिंदी! कालजयी जीवनरेखा है हिंदी, जीवन की परिभाषा है हिंदी!  हिंदी की बुलंद ललकार से थी हमने आज़ादी पाई, हर देशवासी की थी इसमें भावना समाई! इसके मीठे बोलों में है ऐसी शक्ति, अपने ही नहीं, परायों को भी अपना कर लेती! हर भाषा को अपनी सखी-सहेली है मानती, ऐसी है हमारी अनूठी अलबेली हिंदी!   संस्कृत से निकलती है हिंदी की धारा, भारतेंदु जयशंकर ने इसे दुलारा! जहाँ निराला महादेवी ने इसको सँवारा, वहीं दिनकर और सुभद्रा ने इसको निखारा! ऐसे महापुरुषों की प्यारी है हिंदी, हिन्द का गुरूर है हिंदी!   विडम्बना है कि हिंदी को राष्ट्र धरोहर मानते हैं, फिर भी लोग हिंदी बोलने में सकुचाते हैं! वैदिक काल से चली आ रही भाषा को छोड़, विदेशी भाषा बोलने में अपनी झूठी शान मानते हैं! पर आज तो विदेशी भी ‘हरे रामा-हरे कृष्णा’ बोलकर, हिंदी संस्कृति के रंगों में रंग जाते हैं!   तत्सम, तद्भव, देशी-विदेशी सभी रंगों को अपनाती, जैसे भी बोलो यह मधुर ध्वनी सी हर के मन में बस जाती। ...

करो मनन, लगाओ वन

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मुझे याद आते हैं वह दिन जब हवा सुहानी बालों से खेल जाती थी, हर घर-आँगन में हरियाली थी, हर सवेरे चिड़ियाँ चहचहाकर जगाती थीं।   पर पेड़ों के कट जाने से टूटा वह मीठा सपना, अब नहीं सुनाई देता चिड़ियाओं का वह चहचहाना, धरती माता प्यासी है, न बादल गरजकर बरसते हैं, न मिट्टी की वह सौंधी खुशबू आती है!   रोका न अगर वनों का विनाश जीवन में होगा त्रास ही त्रास, अगर कट गए पेड़, तो होगी कैसे उन बिन बारिश! सूख जाएँगे नदी-नाले सारे, जाएँगे कहाँ पशु पक्षी बेचारे, अब सोचना होगा, इस विनाश को रोकना होगा।   हे मानव अब तो जागो जरा वरना क्षमा न करेगी ये जीवनदायिनी धरा, पेड़ों से मानव प्यार करो, मित्रों सा व्यवहार करो! पेड़ लगाकर मानव तुम, खुद अपना उपकार करो!

धरा पर स्वर्ग बना रही हैं बेटियाँ!

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बेटियाँ बोझ नहीं किसी पर 'नवयुग' यह कहता है, खुशियाँ लुटाती हैं, बेटियाँ बाँटती हैं दुःख दर्द दिल के हर कोने से, रखती हैं संजोकर इसलिए, धारित्री कहलाती हैं।   बेटियाँ बन गई हैं सहारा सुबह का सूरज यह कहता है, जलती-तपती जाती हैं बेटियाँ मगर शाम की ठंडक भी देती हैं किसी से कम नहीं।   देखा हर कर्तव्य निभा रही हैं बेटियाँ! कहीं मीरा, कहीं लक्ष्मी, कहीं दुर्गा, कहीं सरस्वती, हर रूप में नज़र आ रही हैं बेटियाँ!   नदी की धारे हैं, जलती मशालें हैं, सूरज की लालिमा, तो कहीं हवा में खूशबू हैं, नभ में सितारों की तरह जगमगा रही हैं बेटियाँ!   धरा पर स्वर्ग बना रही हैं बेटियाँ!  

हमारी अनूठी-अलबेली हिन्दी

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हिन्दी भाषा की आओ, तुमको पहचान कराएँ, अपनाकर इसे हम अपना, जीवन सफल बनाएँ।   हिन्दी नहीं किसी की दासी, हिन्दी है गंगा का पानी, हिन्दी है भारत की भाषा, हिन्दी भारत की रानी।   हिन्दी शक्ति रूप है, कर लो इसको नमन, शिव से इसे चन्द्र मिला, ओम नाम उच्चारण।   बह्मा जी के वेदों में, जब संस्कृत उच्चारण आया, हिन्दी के साथ मिलकर सुन्दर शब्द बनाया, वेद, पुराण और गीता पढ़कर, सब प्राणियों ने जीवन सुखद बनाया।   भारत में ही जन्मी हिन्दी, भारत में ही परवान चढ़ी, भारत इसका घर-आंगन है, नहीं किसी से कभी लड़ी।   बिन्दी लगा आदर्श बनी, यूँ भारत देश की नारी, पूरा देश अपनाए इसको, हुई अंग्रेजों पर ये भारी।   सबको गले लगाकर चलती, करती सबकी अगवानी, याचक नहीं, नहीं है आश्रित, सदा सनातन अवढ़रदानी।   खेतों खलियानों की बोली,आँगन-आँगन की रंगोली, सत्यम्-शिवम्-सरलतम्-सुन्दर, पूजा की यह चंदन रोली, जन-जन की भाषा यह, कण-कण की वाणी कल्याणी।   भूख नहीं है इसे राज की, प्यास नहीं इसे ताज की, करती आठों पहर तपस्या, रचना करती नव समाज की।   समय आ गया है, उठो, जागो और संकल्प करो, अ...

बेटियों की डोलियाँ क्यों उठती हैं

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बिटिया है मेरी, जन्मी थी जब लगा जैसे नन्ही सी एक परी सुनहरे रंगो में रंगे आसमां से उतरी हो, जैसे सतरंगी आसमानी महकते फूलों की कली।   फुदकती थी हमेशा मेरे काँधे पर यूं ही गौरैया की तरह, नन्हे-नन्हे हाथों से दुलारती, पुचकारती, कलोल करती, उछलती कूदती घूमती घर भर में नन्ही सी परी।   न जाने कब समय ने छीन लिया  उसका चहकना, नन्हे-नन्हें कदमों में बंधी छम-छम पायल का छनकना दो चाँदी जैसे दाँतों से प्यार से काटना, मेरे पेट पर ही लेटे-लेटे सो जाना, वो घर में रौनक-रोशनी का बिखेरना। कद क्या बढ़ा, जैसे जिम्मेदार हो गई, कब बड़ी हो गई, समझदार हो गई। जिसकी गोद में पली, उसे ही ज्ञान देने लगी माता पिता के स्वास्थ्य पर ध्यान देने लगी, अपने आदर्श मुझमें ही टटोलने लगी मेरी हर अच्छाई की नकल करने लगी।   बेटियों की डोलियाँ क्यों उठती हैं? सदा के लिए चली जाती हैं पराए अनजान द्वार, बन जाती हैं अजनबी किसी और घर की पहचान।   यही है सब परियों की कहानी, सोचते तो हैं सभी कि परी अपने आसमां में रहे, अपने तारे चुने, सपने बुने, स्वावलंबी बने, आत्म सम्मानी बने, क्यों छोड़े घर बाबुल का अपने क्यों न साथ...

इंसान परेशान बहुत है!

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कभी-कभी यूँ ही ख्याल आता है, अच्छी थीं वो पगडंडी अपनी अब सड़कों पर तो जाम बहुत है, फुर्र हो गई फुर्सत अब तो लोगों के पास काम बहुत है।   नहीं ज़रूरत घर में बूढ़ों की अब हर कोई बुद्धिमान बहुत है, उजड़ गए सब बाग-बगीचे दो गमलों में ही अब शान बहुत है।   मट्ठा, दही नहीं खाते हैं अब कहते हैं ज़ुकाम बहुत है, पीते हैं जब चाय तब कहीं कहते हैं आराम बहुत है।   बंद हो गई चिट्ठी, पत्री फोनों पर पैगाम बहुत है, आदी हैं ए०सी० के इतने कहते बाहर घाम बहुत है।   झुके-झुके स्कूली बच्चे बस्तों में सामान बहुत है, सुविधाओं का ढेर लगा है पर इंसान परेशान बहुत है।

तुम उड़ो! तुम आनंद मनाओ!

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  तुम मस्ती करो! खुद को लाइवली रखो! थोड़ी बहुत चीटिंग भी करो! सिर्फ परिवार, पति और बच्चों का मत सोचो अपने बारे में सोचना सीखो!   घर की देखभाल करती हो न? अब खुद की भी करो! तुम्हारे भीतर एक नटखट, खुशमिजाज लड़की छुपी हुई है जी, उसकी तारीफ करो।   अधिक नहीं, लेकिन दिन का एक घंटा खुद के लिए रखो और उस एक घंटे में, जो तुम्हें अच्छा लगता है, वो करो। तुम्हारे भीतर जो लड़की है न, उसे कभी-कभी गलती करना भी अच्छा लगता है, तो करो।   कोई फर्क नहीं पड़ता, हर कोई अपने हिसाब से खुशियाँ ढूँढ़ रहा है, फिर तुम क्यों पीछे रहो! सखियाँ बनाओ, खुद को व्यक्त करो।   कभी-कभी उस डायट चार्ट को बाजू में रख दो, मस्त बटर मस्तानी खाओ, हो जाने दो जरा इधर-उधर, कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग क्या सोचेंगे..माय फुट बच्चों को कम मार्क्स आएँ कभी, तो जाने दो ना।   उम्र हो गई है...अब क्या रखा है इसमें... ऐसे शब्द कभी मत बोलो, क्योंकि उम्र तो एक संख्या ही है जी, खूब किया सबके लिए, अब निकालो समय खुद के लिए, तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान देख, यकीन है मुझे, सारा घर हँसेगा जी।   एक बात याद रखना .. तुम खुश नहीं रहो...

आज लोग बुढ़ापा एन्जॉय करने लगे

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  अब खुलकर हँसने और जीने लगे, खुद को पोते-पोतियों में नहीं उलझाते अपने जैसे दोस्तों संग ये वक्त बिताते।   कोई लाचारी, बेबसी, उदासी अब नहीं दिखती अब इनकी ज़िन्दगी इनकी शर्तों पर गुज़रती, कभी ये गाने गाते, कभी ठुमके लगाते, अपनी कहानी सुनाते, खुलकर मुस्कुराते।   इनकी किट्टियाँ होती, जन्मदिन मनाते, अपनी पेंशन खुद पर ही ये लुटाते, ना ताना मारते, ना बहुओं की सुनते, अपने अधूरे सपने इस उम्र में बुनते।   फेसबुक यूट्यूब के ये दीवाने होते, इनके भी किस्से फ़साने होते, इनको भी दोस्तों का इंतजार होता, पार्क में रोज़ यारों का जमघट होता।   अब के बुजुर्ग समझने लगे ज़िन्दगी के बचे लम्हें जीने लगे, समझ गए साथ कुछ नहीं जाने वाला, तो खुशनुमा लम्हें ये सहेजने लगे।

भारत की अन्तरिक्ष यात्रा!

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 “तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूँ उस पार क्या है, जा रहे जिस पंथ से युग कल्प उसका छोर क्या है।” कवियत्री महादेवी वर्मा की यह पंक्तियां प्रमाणित करती हैं कि सभ्यता की शुरुआत से ही मानव अंतरिक्ष की रोमांचक कल्पनाएँ करता रहा है। इन रोमांचक कल्पनाओं में अंतरिक्ष कभी आध्यात्म का विषय बना तो कभी कविताओं और दंत-कथाओं का। पारलौकिकतावाद से प्रभावित होकर कभी मानव ने अपनी कल्पना के स्वर्ग और नरक अंतरिक्ष में स्थापित कर दिये तो कभी मानवतावाद के प्रभाव में आकर पृथ्वी को केंद्र में रखा और अंतरिक्ष को उसकी परिधि मान लिया। धीरे-धीरे जब सभ्यता और समझ विकसित हुई तो मानव ने अंतरिक्ष के रहस्यों को समझने के लिये प्रेक्षण यंत्र बनाएँ, जिनमें दूरबीनें प्रमुख थीं। इसके बाद प्रारम्भ हुआ विज्ञान के माध्यम से अंतरिक्ष को समझने का प्रयास।  इस क्रम में आर्यभट्ट से लेकर गैलीलियो, कॉपरनिकस, भास्कर एवं न्यूटन तक प्रयास होते रहे। न्यूटन के बाद आधुनिक अंतरिक्ष विज्ञान का विकास हुआ, जो आज इतना परिपक्व हो गया है कि हम मानव को अंतरिक्ष में भेजने के साथ अंतरिक्ष पर्यटन एवं अंतरिक्ष कॉलोनियाँ बसाने की भी कल्पना कर...

बचपन की बस्ती, मासूमियत भरी मस्ती!!

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बचपन की यादें जब भी आती है, मन के बच्‍चे को फिर जगाती है! बचपन के वो दिन, जिनमें भरा था खुशियों का खजाना। कितना सुगम सलोना था, शब्दों में मुश्किल है कह पाना! बचपन....जब लगती थी दुनिया की सारी सच्चाई झूठी, और दादी नानी की हर कहानी लगती थी सच्ची और अनूठी! न खबर थी कुछ सुबह की, न शाम का ठिकाना था। चाहत चाँद को छु लेने की थी, पर दिल तितली का दिवाना था! हर खेल में साथी थे, हर रिश्ता निभाना था थक कर आना स्कूल से, पर खेलने भी तो जाना था! पापा से डरना और माँ से लड़ना, करके कोई गलती फिर उलझन में पड़ना! छोटी-छोटी चीजों में खुशियाँ थी बड़ी-बड़ी, हर काम में मिलती थी शाबाशियाँ घड़ी-घड़ी! कभी पिता के कंधो का, तो कभी माँ के आँचल का सहारा था! वो बचपन कितना सुहाना था, जिसका रोज एक नया फ़साना था! ना कोई परेशानीयों का मेला, ना जिम्मेदारियों का था झमेला! भोली सी शैतानियाँ, अल्हड़ सी नादानियाँ, ना था अपने-पराए का भेद, था तो बस एक छोटा सा सवालों का ढेर! आज याद आ चला वो बचपन सुहाना याद में ले चला जेसे कोई दोस्त पुराना! वक्त के बदलते करवटों के साथ बदलता गया एहसास पर आज भी है वो बचपन बड़ा खास! मालूम है मुझे.......

बस, एक घंटा खुद के लिए !!!

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तुम उड़ो!  तुम आनंद मनाओ! तुम मस्ती करो!  खुद को lively रखो! थोड़ी बहुत चीटिंग भी करो! सिर्फ परिवार , पति और बच्चों का , मत सोचो अपने बारे में सोचना सीखो! घर की देखभाल करती हो न ?  अब खुद की भी करो! तुम्हारे भीतर एक नटखट , खुशमिजाज लड़की छुपी हुई है जी उसकी तारीफ करो। अधिक नहीं , लेकिन दिन का एक घंटा खुद के लिए रखो और उस एक घंटे में , जो तुम्हें अच्छा लगता है , वो करो। तुम्हारे भीतर जो लड़की है न , उसे कभी कभी गलती करना भी अच्छा लगता है , तो करो। कोई फर्क नहीं पड़ता ,  हर कोई अपने हिसाब से , खुशियां ढूंढ़ रहा है ,  फिर तुम क्यों पीछे रहो जीवन में खुशियाँ ढूँढो , जरूर मिलेंगी , बस अपने भीतर की लड़की को.. मस्ती को अपने साथ रखो। 😊 सखियाँ बनाओ ,  खुद को व्यक्त करो।  कभी - कभी उस डायट चार्ट को , बाजू में रख दो ,  मस्त बटर 🧀🍞🍟 मस्तानी खाओ। हो जाने दो जरा इधर उधर ,  कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग क्या सोचेंगे.. my foot बच्चों को कम मार्क्स आए कभी , तो जाने दो ना। उम्र हो गई है...अब क्या रखा है इसमें... ऐंसे शब्द...

मेरा जीवन मेरा है

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शालिनी की अरेंज मैरिज हुई थी। उसने मन ही मन सोच रखा था कि ससुराल में सभी से बहुत अच्छे से रहूंगी। घर के कामों में भी होशियार, पढ़ी लिखी समझदार, ससुराल भी अच्छा, सास ससुर ननद देवर सभी अच्छे से रहते! फिर भी कभी-कभी सास किचन के किसी काम के लिए ...घर के साफ सफाई के लिए... ससुर जी उसके पहनावे के लिए.... देवर कभी खुद के कपड़ों के लिए.... ननंद किसी बात के लिए कभी-कभी बहस कर लेती....! शलिनी जब अपने पति से कभी इस बारे में कुछ कहती तो एक ही जवाब आता, ''मैं क्या कर सकता हूं? ना मैं अपनी मम्मी को कुछ कह सकता हूं ना तुम्हें !'' दिन महीने में बदले और महीने साल में...लेकिन यह सिलसिला चलता रहा और बढ़ता रहा! जब शालिनी को घर में लगभग हर चीज़ के लिए टोका जाने लगा, उसके हर काम में गलती निकली जाने लगी और उसे हर बार एक ही जवाब मिलने लगा कि मैं क्या ही कर सकता हूँ, तो उसने मन ही मन सोच लिया कि यह समस्या मेरी अपनी है!  शलिनी ने सोच लिया कि मुझ में क्या कमी है कि मैं सबको खुश करूँ लेकिन खुद दुखी होकर! मुझे अच्छे से रहने का पूरा अधिकार है! मैं खुशी से रहूँगी! दूसरों से पहले अपनी खुशी का ध्यान रखना...

वृन्दावन का कुम्भ

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एक बार प्रयाग राज का कुम्भ योग था। चारों ओर से लोग प्रयाग-तीर्थ जाने के लिये उत्सुक हो रहे थे। श्रीनन्द महाराज तथा उनके गोष्ठ के भाई-बन्धु भी परस्पर परामर्श करने लगे कि हम भी चलकर प्रयाग-राज में स्नान-दान-पुण्य कर के आते हैं। किन्तु कन्हैया को यह कब मंज़ूर था! प्रातः काल का समय था, श्रीनन्द बाबा वृद्ध गोपों के साथ अपनी बैठक के बाहर बैठे थे कि तभी सामने से एक भयानक काले रंग का घोड़ा सरपट भागता हुआ आया। भयभीत हो उठे सब कि कंस का भेजा हुआ कोई असुर आ रहा है!! वह घोड़ा आया और ज्ञान-गुदड़ी वाले स्थल की कोमल-कोमल रज में लोट-पोट होने लगा।  सबके देखते-देखते उसका रंग बदल गया, काले से गोरा हो गया और अति मनोहर रूपवान हो गया । श्रीनन्दबाबा सब आश्चर्यचकित हो उठे। वह घोड़ा सबके सामने मस्तक झुका कर प्रणाम करने लगा। श्रीनन्दमहाराज ने पूछा, "कौन है भाई तू ? कैसे आया और काले से गोरा कैसे हो गया?'' वह घोड़ा एक सुन्दर रूपवान विभूषित महापुरुष रूप में प्रकट हो हाथ जोड़ कर बोला', "हे व्रजराज ! मैं प्रयागराज हूँ। विश्व के अच्छे बुरे सब लोग आकर मुझमें स्नान करते हैं और अपने पापों को मुझमें...

रहें एक दूसरे के संग, अकेलेपन को करें भंग!

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मेरी पत्नी ने कुछ दिनों पहले घर की छत पर कुछ गमले रखवा दिये और एक छोटा-सा बगीचा  बना लिया। पिछले दिनों मैं छत पर गया, तो देखकर हैरान रह गया! कई गमलों में फूल खिल आए थे। नींबू के पौधे में भी दो नींबू भी लटके हुए थे और दो-चार हरी मिर्च भी लटकी हुई नज़र आ रही थी!  तभी मैंने देखा कि पत्नी बाँस के पौधे वाले गमले को घसीटकर दूसरे गमले के पास रखने की कोशिश कर रही थी। मेरे पूछने पर कि इतने भारी गमले को वह क्यों घसीट रही थी, तो पत्नी बड़े ही सहज ढंग से बोली, "यहाँ यह बाँस का पौधा सूख रहा है, इसे खिसकाकर इस पौधे के पास कर देते हैं।" मैंने एकदम से कहा "अरे! बाँस तो बड़ा ही मजबूत पौधा होता है फिर भी सूख गया! और एक बात बताओ पौधा सूख रहा है तो उसमें खाद डालो, पानी डालो! इसे खिसकाकर किसी और पौधे के पास कर देने से क्या ही हो जाएगा!?" पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा, "मजबूत मान कर उसे अलग रख दिया था इसलिए यह मुरझा रहा है। अकेला पड़ गया था यह पौधा! इस इसके साथियों के पास कर देंगे तो देखना यह फिर लहलहा उठेगा! तुम भी तो अकेले में बोर हो जाते हो ना और पड़ोस वाले मिश्रा जी का साथ पाते ही कैस...

पति नही चाहिए, दोस्त चाहिए

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सुबह उसके डर से उठ कर नही बनानी चाय अलसा जाना है कहना है यार बना दो न आज तुम चाय पति नही चाहिए जो क्या पहनू, बाहर न जाउ, किसी से बात न करूं, बस उसके हिसाब से जीवन जियूँ,  दोस्त चाहिए , जो कहे कि ऐसे ही तो पसंद किया था इन्ही खूबियों (अब कमिया है) के साथ वैसे ही रहा करो!! पति नही चाहिए,  के खिड़की में आँखे गाड़ मुझे किसी से बात करता देख शक की कोई पूरी कहानी बना ले चमड़ी उधेड़ देने की बात करे साली दुनियाँ भर के लोगो से बतियाती है के क्षोभ से मरता रहे,और अपना गुस्सा मुझपर निकाले, दोस्त चाहिए प्यार से पूछे और कहे यार तुम कितने जल्दी लोगों से  जान पहचान कर लेती हो न कितनी सोशल हो बात करने का संकोच नहीं तुममें मैं नही कर पाता हूँ सहज इतनी बातें🙄 पति नही चाहिए मेरे मासूम सपनों का सुन कर भी जिसकी नाराजगी की जमीन में कांटे उग आए यात्राओं में कौन आवारा औरतें है जो अकेली जाती है कमाएं हम और मौज के सपनें तुम देखो, दोस्त चाहिए खुद हो कहे कभी दोस्तो के साथ पहाड़ की यात्रा पर जाना रुकना किसी रात उनके घर बारिशों में कभी चाय पार्टी करना बहुत बहुत अच्छा फील करोगी खूब ऊर्जा के साथ लौटोगी घर में...

निश्चित ही मेरे देश में बदलाव आया है!!

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नंगे पांव रेड कार्पेट पर गरीब आया है!  निश्चित ही मेरे देश में बदलाव आया है! अभी तक बन्द थे दरवाजे सत्ता के शीश महलों के! आज एक आदिवासी आया है राष्ट्रपति भवन बिना चप्पलों के।।  गरीब आदिवासी महिला के समक्ष प्रधानमंत्री ने शीश नवाया है! निश्चित ही मेरे देश में बदलाव आया है।। एसी कमरों में बैठकर बुद्धिजीवी मज़दूर का दर्द लिखता था! बादाम चबाकर भूख पर लिखने वालो को पुरुस्कार मिलता था।। बस स्टेंड पर संतरे बेचने वाले ने भी पद्म श्री सम्मान पाया है! निश्चित ही मेरे देश में बदलाव आया है।। गरीब किसान के दर्द का सब रोना रोते थे! किसान हित की योजनाओ पर अफ़सर तकिया लगाकर सोते थे।। आज किसान निधि में सीधे किसानों के खाते में पैसा आया है! निश्चित ही मेरे देश में बदलाव आया है।। बॉर्डर पर दुश्मन भेड़ियो के हाथों जवानों के सिर कट जाते थे! और हम संयुक्त राष्ट्र संघ में शांति की रट लगाते थे।। आज अभिनन्दन को सर झुकाकर पाक ने वापस लौटाया है! निश्चित ही मेरे देश में बदलाव आया है।। विदेशी सम्मेलनों के मंच पर हमारे पैर उखड़ जाते थे! संयुक्त राष्ट्र में हम पुर्तगाल का भाषण पढ़ आते थे।। आज अमेरिका रूस ने...

पौराणिक कथाओं में छिपे रोचक तथ्य

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श्री गणेश की प्रतिमा विसर्जन क्यों करते हैं गणेशजी के विसर्जन के पीछे एक रोचक कहानी है। पौराणिक कथा के अनुसार, वेदव्यास जी ने महाभारत कथा गणेश चतुर्थी के दिन से श्री गणेश को लगातार 10 दिन तक सुनाई थी जिसे श्री गणेशजी ने हूबहू लिखा था। 10 दिन बाद वेदव्यासजी ने जब गणेशजी को छुआ तो देखा कि उनके शरीर का तापमान बहुत बढ़ चुका था, तब वेदव्यास जी ने तुरंत जलकुंड में ले जाकर उनके शरीर के तापमान को शांत किया। इसलिए गणेश स्थापना कर चतुर्दशी को उनका विसर्जन किया जाता है। भारतीय इतिहास में गणेश चतुर्थी की परंपरा की शुरुआत बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र से की थी। उन्होंने यह अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ एकजुट होने के लिए की थी क्योंकि उन्हें यह बात अच्छे से पता थी कि भारतीय लोग आस्था के नाम पर एकजुट हो सकते हैं। इसलिए उन्होंने महाराष्ट्र में गणेश महोत्सव की शुरुआत की और वहां गणेश विसर्जन भी किया जाने लगा। कैसे बना शेर माँ दुर्गा की सवारी पौराणिक कथाओं के अनुसार माता पार्वती भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तपस्या करने लगी। इस दौरान एक भूखा शेर माँ को खाने की इच्छा से पहुंचा लेकिन माँ को तपस्या में लीन बैठ...

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में आम जनता का योगदान

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भारत का स्वतंत्रता संग्राम भारतीय इतिहास का वह युग है , जो पीड़ा , कड़वाहट , दंभ , आत्मसम्मान , गौरव तथा सबसे अधिक शहीदों के लहू को समेटे है। स्वतंत्रता के इस महायज्ञ में समाज के प्रत्येक वर्ग ने अपने-अपने तरीके से बलिदान दिए, चाहें वो क्रांतिकारी रहे हों, या फिर नेता, चाहें वो ओजस्वी लेखक और कवि रहे हों या फिर आम जनता।  जब भी हम भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास पढ़ते हैं तो हमें क्रांतिकारियों, नेताओं आदि के बलिदान और उनके द्वारा सहे गए उत्पीड़न की गाथाएं तो पढ़ने को मिलती हैं पर हमारी जानकारी से ये एक महत्वपूर्ण पहलू अछूता रह जाता है कि स्वतंत्रता के इस महासमर में आम जनता ने भी असहनीय पीड़ा और वेदना सहन की है और अपने प्राणों तक की आहुति भी समय-समय पर दी है। इस महायज्ञ में जनता के अनेक वर्गों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। शायद राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की ' भारत-भारती ' में लिखी गयीं निम्न पंक्तियों ने ही देश की जनता को देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए प्रेरित कर दिया था- जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं , नर-पशु निरा ह...

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